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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
चाट लेगी। किन्तु ये इन्द्रियां ऐसे प्रत्यवमर्षोको नहीं कर सकती हैं कि यह वही सूंघा जा रहा है जो कि पापड पहिले देखा या खाया था यह उससे अधिक भुरभुरा है, यह उससे न्यून लक्षणवान् है। यह शब्द उस शब्दसे गम्भीर है, तीक्ष्ण है, कर्कश है। जैसे कि टेलिफोनोंके यहां वहां जाने, आने, सम्बन्ध मिलाने का संयोजक एक प्रधान कार्यालय होता है, उसी प्रकार इन्द्रियों द्वारा आगे पीछे हुये ज्ञानोंका अधिकारी एक विमर्षक आत्मा ही उपयोग लगाकर उनका अनुसंधान कर सकता है। इन्द्रियां इस कार्यको कालत्रयमें नहीं कर सकती हैं। क्योंकि उनके द्वारा ग्रहण किये जा चुके विषयोंका परस्परमें संक्रमण नहीं हो पाता है । रुपया स्वयं अपना परिवर्तन ( एक्सचेंज ) नहीं कर लेता है । इस कार्यके लिये चारों ओर का भाव निरख कर ठीक ठीक व्यस्था कर देने वाले कोषाध्यक्ष ( बैंकर ) की आवश्यकता है । इससे इन्द्रियज्ञानों या विचारक ज्ञानोंका अनुसंधान रखनेवाला गृहीता आत्मा सिद्ध हो जाता है।
गर्भादिमरणपर्यंतो महांश्चैतन्यविवर्तो दर्शनस्पर्शनास्वादनाघ्राणश्रवणानुस्मरणलक्षणचैतन्यविशेषाश्रयो गृहीता तद्धेतुरिति चेन्न, तस्यैवात्मत्वेन साधितत्वादनाद्यनंतत्वोपपत्तेः । न चायं निर्हेतुकः कादाचित्कत्वादिति परिशेषादात्मसिद्धेश्च नात्मनोभावो युक्तः।
चार्वाक कहते हैं कि आत्मा तत्त्व अनादि अनन्त नहीं है । गर्भसे आदि लेकर मरण पर्यन्त लम्बा चौडा महान् चैतन्य परिणाम ही देखना, छूना, चाखना, सूंघना, सुनना, पीछे स्मरण करना, ऐसे लक्षणवाले विशेष चैतन्योंका आश्रय है वही गृहीता है और गर्भसे मरणतक ही ठहरनेवाला आत्मा उस अनुसंधान ज्ञान करनेका हेतु है । गर्भसे प्रथम और मरणके पश्चात् भी उसका अन्वय मानते जाना उचित नहीं है । आचार्य कहते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि उस महान् चैतन्य विवर्तको ही आत्मपने करके साध दिया गया है, उस चैतन्यका अनादि कालसे लेकर अनन्त कालतक द्रव्यरूपसे ठहरना बन जाता है। यह चैतन्य विशेष या अनुसंधानज्ञान भला हेतुओंसे रहित तो नहीं है। क्योंकि कभी कभी होता है । जो कार्य कभी कभी होते हैं उनका कोई नियत हेतु अवश्य है। विशेष चैतन्यका हेतु यह शरीर तो नहीं है । मृत शरीरमें व्यभिचार हो जायगा । इन्द्रियां भी चैतन्यका हेतु नहीं हैं । क्योंकि चक्षु या श्रवण इन्द्रियका घात हो जानेपर भी देखे सुने हुओंका स्मरण हो रहा देखा जाता है । शरीर, इन्द्रिय, नोइन्द्रिय, ये जड पदार्थ तो घट, पट, आदिके समान विचार नहीं कर सकते हैं । चार्वाकों द्वारा माने गये पृथिवि, जल, तेज, वायु, चार तत्त्वोंके बूते उक्त कार्य करना अशक्य है । अतः परिशेष न्यायसे चैतन्यविशेषका हेतु आत्माद्रव्य सिद्ध हो जाता है । इस कारण चार्वाकोंको आत्माका अभाव कर देना समुचित नहीं है । गर्भसे प्रारम्भ कर
चैतन्य विशेषकी जो उत्पत्ति मानी गयी है वह उपादान कारणसे ही सध सकती है। उपादानके बिना किसीकी उत्पत्ति नहीं होती है । शब्द, बिजली, आदिके भी अदृश्य उपादान वर्त्त रहे हैं तथा मरण के पश्चात् किसी उपादेयको उत्पन्न कर ही चैतन्य टूट सकता है। उत्तर अधिकारीको नहीं