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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
नन्बकमनकात्मकं तत्वतः सिद्धं चेत् कथं विरुद्धमिति स्थाद्वादविद्विषामुपालंभः कचित्तद्विरुद्धमुपलभ्य सर्वत्र विरोधमुद्भावयतां न पुनरबाध्यप्रतीत्यनुसारिणाम् ।
कोई शंका करता है कि जब एक पदार्थ वास्तविकरूपसे अनेक धर्म आत्मक सिद्ध हो रहा है तो एकपन और अनेकपना विरुद्ध कैसे कहा जाता है ? इस प्रकार स्याद्वादसे विशेष द्वेष करनेवालोंका उलाहना उन हीके ऊपर लागू होगा, जो कि किसी एक स्थानपर उन एकपन और अनेकपनको विरुद्ध देखकर सभी स्थानोंपर विरोध दोषको उठा देते हैं । किन्तु निर्वाध प्रतीतिके अनुसार वस्तुको जाननेवाले स्याद्वादियोंके ऊपर कोई उलाहना नहीं आता है। एक चन्द्रमामें अनेकपना बाधित है । किन्तु एक चन्द्रमाकी किरणोंमें अनेकपना प्रतीतसिद्ध हैं। अतः अनेक आकारोंवाले एक ईश्वर ज्ञानके समान मेचक ज्ञानको दृष्टान्त बनाकर एक ज्ञानमें प्रमाणपन और अप्रमाणपन किसी अपेक्षासे साध लिये जाते हैं । प्रतीत हो रहे पदार्थोंमें विरोध नहीं मानना चाहिये । जैसे कि 'नित्यत्व, अनित्यत्व, अस्तित्व नास्तित्व धर्म एक धीमें अविरुद्ध होकर बैठे रहते हैं। एकान्तवादियोंकी मान्यता अनुसार विरोध शब्द कह दिया था, बस्तुतः उनका अविरोध है।
प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमित्युपवर्ण्यते । . कैश्चित्तत्राविसंवादो यद्याकांक्षानिवर्तनम् ॥ ५९॥ तदा स्वप्नादिविज्ञानं प्रमाणमनुषज्यते । ततः कस्यचिदर्थेषु परितोषस्य भावतः ॥ ६०॥
अब ग्रन्थकार प्रमाणके सामान्य लक्षणोंपर विचार चलाते हैं। उनमें प्रथम " अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणं " जो ज्ञान विसम्वादोंसे रहित है, वह प्रमाण है । इस प्रकार किन्हीं बौद्धवादियों करके कहा जाता है। तिसपर हम बौद्धोंसे पूंछते हैं कि अविसम्वादका अर्थ क्या है ? यदि ज्ञात हो गये पदार्थमें आकांक्षाका निवृत्त हो जाना अविसंम्वाद है ? तब तो स्वप्न, मूर्छित, भ्रान्ति आदि अवस्थाओंमें हुये विज्ञानोंको भी प्रमाणपनेका प्रसंग आ जाता है । क्योंकि उन स्वप्नमें अथवा इन्द्रजालियाके निमित्तसे हुये ज्ञानों द्वारा जाने गये पदार्थोमें भी किसी विनोदी जीवको परितोषका सद्भाव देखा जाता है । भांग पीनेवाले चतुर्वेदी ( चौवे ) को विजया पान करनेपर विसम्बादी ज्ञानों द्वारा आकांक्षाओंकी निवृत्ति हो जाती हैं। क्रीडा करनेवाले बालकोंको आरोपित ( नकली ) पदार्थोमें मुख्य ( असली ) पदार्थोके भ्रान्तज्ञानसे विशिष्ट परितोष प्राप्त हो जाता है । अतः बौद्धोंसे माना गया प्रमाणका लक्षण अतिव्याप्ति दोषसे ग्रस्त है ।
न हि स्वप्तौ वेदनेनार्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमानोर्थक्रियायामाकांक्षातो न निवर्तते प्रत्यक्षतोनुमानतो वा दहनाद्यवभासस्य दाहाद्यर्थक्रियोपजननसमर्थस्याकांक्षितदहनाद्यर्थमापण