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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
एक एवेश्वरज्ञानस्याकारः सर्ववेदकः। तादृशो यदि संभाव्यः किं ब्रह्मैवं न ते मतम् ॥ ५४॥ तचेतनेतराकारकरंबितवपुः स्वयम् ।। भावैकमेव सर्वस्य संवित्तिभवनं परम् ॥ ५५॥ योकस्य विरुध्येत नानाकारावभासिता ।
तदा नानार्थबोधोपि नैकाकारोवतिष्ठते ॥ ५६ ॥
यदि वादी यों कहे कि सम्पूर्ण पदार्थोको जाननेवाले ईश्वरज्ञानका तिस प्रकार सबको जाननेवाला लम्बा चौडा एक ही आकार संभवता है । परस्परमें एक दूसरेसे विशिष्ट हो रहे अनेक पदार्थ एक हैं । उस एकका एक समुदित आकार एक ज्ञानमें पड़ जाता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसी सम्भावना की जायगी तब तो इस प्रकार एक परम ब्रह्मतत्त्व ही तुम्हारे यहां क्यों नहीं मान लिया जाय । सब टंटा मिट जायगा । ज्ञान और ज्ञेय सब एक हो जाओ, वह परमब्रह्म स्वयं सभी चेतन अचेतन आकारोंके सहारे अपने शरीरको धारता हुआ एक भावरूप है । वही सम्पूर्ण पदार्थोकी उत्कृष्ट सस्वित्ति होना है। यदि नैयायिक यों कहें कि एक अद्वैत ब्रह्मको नाना आकारोंका प्रकाशकपना विरुद्ध पडेगा तब तो हम जैन कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञके अनेक अर्थीका ज्ञान भी एक आकारवाला नहीं अवस्थित हो सकता है । यह तो एक ज्ञानमें अनेक आकार माननेपर ही व्यवस्था बनेगी। “ पोतकाक" न्यायसे अनेकान्त ही तुमको शरण्य है।
नाना ज्ञानानि नेशस्य कल्पनीयानि धीमता। क्रमात्सर्वज्ञताहानेरन्यथाऽननुसंधितः ॥ ५७ ॥ तस्मादेकमनेकात्मविरुद्धमपि तत्त्वतः। सिद्धं विज्ञानमन्यच वस्तुसामर्थ्यतः स्वयम् ॥ ५८॥
विचारशील बुद्धिवाले पुरुष करके ईश्वरके अनेक ज्ञान तो नहीं कल्पित करना चाहिये । क्योंके यों तो एक एक ज्ञान द्वारा एक एक पदार्थको क्रमसे जाननेपर सर्वज्ञपनकी हानि हो जावेगी अनन्त कालतक भी ईश्वर सर्वको नहीं जानसकता है । जगत् अनन्तानन्त है, अन्यथा यानी दूसरे ढंगसे सर्वज्ञता माननेपर पहिले पीछेके ज्ञानों द्वारा जान लिये गये पदार्थोका अनुसन्धान नहीं हो सकता है । भला ऐसी दशामें सर्वज्ञपना कहां रहा? तिस कारण एक भी विज्ञान अनेक अत्मक विरुद्ध सदृश होता हुआ भी वास्तविक रूपसे सिद्ध हो जाता है । तथा अन्य भी अग्नि, सुख,आदिक पदार्थ बस्तुपरिणतिकी सामर्थ्य से स्वयं अनेक धर्मात्मक सिद्ध हैं । अनेकान्त आत्मकपना केवलान्वयी है।