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तावार्थश्लोकबार्तिके
योग्यतास्वभावस्य जाग्रहशायामिवानुभवात् । तादृशस्यैवाकांक्षानिवर्तनस्य प्रमाणे प्रेक्षावद्भिरर्थ्यमानत्वात् । ततोतिव्यापि प्रमाणसामान्यलक्षणमिति आयातम् ।
स्वप्न अवस्था में उत्पन्न हुये ज्ञान करके पदार्थकी ज्ञप्ति कर प्रवर्त रहा मनुष्य अर्थक्रियाको करनेमें आकांक्षाओंसे निवृत्त नहीं होता है, यह नहीं समझना । अर्थात्-स्वप्नज्ञान करते समय इष्ट पदार्थकी ज्ञप्ति होनेपर आकांक्षाएं निवृत्त हो जाती हैं। प्रेमप्रद या भयप्रद पदार्थक देखनेपर स्वप्नमें वैसी शारीरिक परिणतियें होती हैं। आठ महानिमित्त ज्ञानोंमें स्वप्न भी गिनाया है। अनेक पुरुष स्वप्नोंके द्वारा अतीन्द्रिय विषयोंको जानकर लाभ उठा लेते हैं। तथा सामान्य स्वप्नोंसे मी कैई प्रकारकी आकांक्षाएं निवृत्त हो जाती हैं । ब्रह्माद्वैतवादीके यहां तो स्वप्नज्ञान और जाग्रत् दशाके ज्ञानोंमें कोई अन्तर नहीं माना गया है । प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाणसे जगती हुई दशामें जैसे दाह, पाक, सिंचन, पिपासानिवृत्ति, आदि अर्थक्रियाओंको पैदा करनेमें समर्थ और आकांक्षा किये गये अग्नि आदि अर्थोको प्राप्त करानेकी योग्यता स्वभाववाले अग्नि, जल आदि अर्थोका प्रतिभास होता है, वैसा ही स्वप्नमें भी अग्नि, जल आदिका प्रतिभास हो जाता है । और उस ही प्रकारकी आकांक्षानिवृत्तिकी हिताहित विचारनेवाले पुरुषोंकरके प्रमाणमें अभिलाषा की जाती है। भावार्थ-अर्थक्रियाके साधक पदार्थका प्रदर्शन करा देना ही प्रमाणकी अर्थप्रापकता है। सूर्य, मोदक, आदि विषयोंको हाथमें या मुखमें थम्मादेना प्रमाणका अर्थप्राप्ति कराना नहीं है । उदार पुरुष आज्ञा दे देते हैं । रोकड़िया रुपयोंको देता फिरता है । आकांक्षा, पुरुषार्थ, प्रवृत्ति, शक्यता आदि कारण पदार्थीको प्राप्त करा देते हैं। जागती अवस्थामें पदार्थोको देखकर जिस प्रकारकी आकांक्षा निवृत्ति हो जाती है, वैसी ही स्वप्नमें भी पदार्थोका ज्ञान कर आकांक्षानिवृत्ति हो जाती है। विचारशील पुरुष प्रमाणज्ञानोंसे भी यही अभिलाषा रखते हैं । तिस कारण बौद्धोंसे माना गया आकांक्षा निवृत्तिरूप अविसम्वाद यह प्रमाणका सामान्य लक्षण अतिव्याप्ति दोषवाला है । बौद्धोंको यह बडा भारी दोष प्राप्त हुआ।
अर्थक्रिया स्थितिः प्रोक्ताऽविमुक्तिः सा न तत्र चेत् ।
शाद्वादाविव तद्भावोस्त्वभिप्रायनिवेदनात् ॥ ६१ ॥ ____बौद्ध कहते हैं कि सम्बादका अर्थ वास्तविक अर्थक्रियाकी स्थिति होना बढिया कहा गया है। और वह अर्थक्रियाका ठहरना किसी प्रकार भी अर्थक्रियाकी विमुक्ति नहीं होना है । ऐसी अर्थक्रियाकी स्थिति उन स्वप्न, मत्त आदि अवस्थाओंके ज्ञानोंमें नहीं है । अतः हमारे लक्षणमें अतिव्याप्ति दोष नहीं है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम जैन कहेंगे कि मनोहर वादित्र या संगीत आदिके शब्दजन्य ज्ञानोंमें या चित्र आदिके रूपज्ञानोंमें जैसी थोडी देर ठहरनेवाली अर्थक्रिया है, वैसी स्वप्न आदिकमें भी हो जाओ । वहां भी ज्ञाताको इष्ट अर्थके अभिप्रायका निवेदन करनेसे साध्यकी विभुक्ति न होना विद्यमान है।