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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
स्वसंविन्मात्रताध्यक्षा यथा बुद्धिस्तथा यदि । वेद्याकारविनिमुक्ता तदा सर्वस्य बुद्धता ॥४७॥ तया यथा परोक्षत्वं स्वसंवित्तेरतोपि चेत् ।
बुद्धादेरेपि जायेत जाड्यं मानविवर्जितम् ॥ ४८ ॥
जिस प्रकार योगाचार बौद्धोंके यहां केवल स्वसंवेदनकी अपेक्षासे बुद्धि प्रत्यक्ष मानी गयी है, तिसी प्रकार वेद्य, वेदक आकारसे रहितपना भी यदि प्रत्यक्षरूप होता तो सब जीवोंको सुगतपना प्राप्त हो जाता । यानी सब सर्वज्ञ हो जाते । सबकी बुद्धियां सर्वाङ्गरूपसे सर्वज्ञ बुद्धिके समान एक रस प्रत्यक्ष हैं । जो किसी अंशमें भी परोक्ष ज्ञान नहीं करता हुआ शुद्धप्रत्यक्ष कर रहा है, वह सर्वज्ञ है। तथा उस वेद्याकार रहितपनेसे जैसे बुद्धिका परोक्षपना है, वैसा इस स्वसंवित्तिकी अपेक्षासे भी यदि परोक्षपना माना जायगा तो बुद्ध या अन्य मुक्त आत्मा आदिकोंको भी जडपना हो जावेगा, जो कि प्रमाणसे रहित अभिमत है । सर्वाङ्गरूपसे ज्ञानमें परोक्षपना कहना जडपन कहनेके समान है। यानी जिसको स्वका भी प्रत्यक्ष नहीं है, वह जड है।
न हि सर्वस्य बुद्धता बुद्धादेरपि च जाड्यं सर्वथेत्यत्र प्रमाणमपरस्यास्ति यतः संविदाकारेणेव वेद्याकारविवेकेनापि संवेदनस्य प्रत्यक्षता युज्येत तद्वदेव वा संविदाकारेण परो. क्षता तदयोगे च कथं दृष्टान्तः साध्यसाधनविकलः हेतुर्वा न सिद्धः स्यात् । ___सब जीवोंको बुद्धपना हो जाय और बुद्ध, खड्गी, आदिको भी जडपना सभी प्रकार प्राप्त हो जाय, इस विषयमें दूसरे बौद्ध आदि वादियोंके यहां कोई प्रमाण नहीं है, जिससे कि सम्वित्ति आकार करके जैसे सम्वेदनको प्रत्यक्षपना है । वैसा ही सम्वेद्य आकारके पृथक् भावपनेसे भी सम्वेदनको प्रत्यक्षपना युक्त होवे तथा वेद्य आकारके विवेक करके जैसे परोक्षपना है, उसी प्रकार ज्ञानमें सम्वित्ति आकार करके भी परोक्षपना हो जाय । जब वह व्यवस्था नहीं युक्त हुई तो हमारा दिया हुआ एक सम्वेदनमें प्रत्यक्ष परोक्षपनेका दृष्टान्त भला साध्य और साधनसे रहित कैसे हो सकता है ? और हेतु भी सिद्ध क्यों नहीं होगा ? अर्थात् एक सम्बेदनरूप दृष्टान्तमें एकके होनेपर दो से किसी एककी निवृत्ति न होनारूप हेतु और अविरोधरूप साध्य ठहर जाते हैं, और पक्षमें हेतु भी रह जाता है । अतः एक ज्ञानमें प्रमाणपना और अप्रमाणपनेको सिद्ध कर देता है । बौद्धोंने ज्ञानमें वेद्याकारका विवेक माना है । विचिर् पृथग्भावे और विच्ल विचारणे धातुसे विवेक शद्वको बनाकर योगाचार और सौत्रान्तिकोंके यहां ज्ञानमें विवेकपना बन जाता है ।
यैव बुद्धेः स्वयं वित्तिवेद्याकारविमुक्तता। सैवेत्यध्यक्षतैवेष्टा तस्यां किन्न परोक्षता ॥ ४९ ॥