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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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बौद्ध कहते हैं, कि जो ही ज्ञानकी स्वयं सम्बित्ति होना है, वही तो वेद्याकारसे रहितपना है। जैसे कि रीते भूतलका दीखना ही घट, पट आदिकोंका अनुपलम्भ है । अतः वेद्याकारसे रहितपना भी प्रत्यक्ष ही इष्ट किया गया है । इस प्रकार बौद्धोंके कहनेपर तो हम कटाक्ष कर सकते हैं कि उस वेद्य आकाररहितपनेके परोक्ष होनेपर स्वसम्वेदनको भी स्वांशमें परोक्षपना क्यों नहीं हो जावे, साझेके प्रकरणमें किसके भी धर्म चाहे जिसके कहे जा सकते हैं । एक ओर ही. पक्षपात करना अन्याय है।
बुद्धेः स्वसंवित्तिरेव वेद्याकारविमुक्तता तस्याः प्रत्यक्षतायां वेद्याकारविमुक्ततापि प्रत्यक्षतैव यदीष्यते तदा तस्याः परोक्षतायां स्वसंवित्तेरपि परोक्षता किं नेष्टा ? स्वसंवित्तिवेद्याकारविमुक्ततयोस्तादात्म्याविशेषात् ।
बुद्धिकी स्वसम्वित्ति होना ही यदि वेद्याकारोंसे रहितपना है, अतः उस बुद्धिको प्रत्यक्षपना होनेपर वेद्याकार रहितपना भी प्रत्यक्ष ही है । परोक्ष नहीं है, यदि सौत्रान्तिक इस प्रकार इष्ट करेंगे तब तो उस वेद्याकार रहितपनेको परोक्षपना होनेपर स्वसम्वित्ति अंशको भी परोक्षपना क्यों नहीं इष्ट कर लिया जावे । क्योंकि ज्ञानकी स्वसम्वित्ति और ज्ञानके वेद्याकार रहितपनका तादात्म्यसम्बन्ध विशेषाताओंसे रहित हो रहा है । जिनका तादात्म्य सम्बन्ध होता है, उनमेंसे एकके धर्म दूसरेमें सुलभतासे उतर आते हैं।
ननु च केवलभूतलोपलब्धिरेव घटानुपलब्धिरिति घटानुपलब्धितादात्म्येपि न केवलभूतलोपलब्धेरनुपलब्धिरूपतास्ति तद्वद्याकारविमुक्त्यनुपलब्धितादात्म्येपि न स्वरूपोपलब्धेरनुपलब्धिस्वभावता व्यापकस्य न्याप्याव्यभिचारात् व्याप्यस्यैव व्यापकव्यभिचारसिद्धेः पादपत्वशिशिपात्ववत् । स्वरूपोपलब्धिमात्रं हि व्याप्यं व्यापिका च वेद्याकारविमु- - क्त्यनुपलब्धिरिति चेत् नैतदेवं तयोः समव्याप्तिकत्वेन परस्पराव्यभिचारसिद्धः कृतकत्वानित्यवत् । न हि वेद्याकारविवेकानुपलब्धावपि कचित्संवेदने कदाचित्स्वरूपोपलब्धिर्नास्ति ततः प्रत्यक्षात् स्वसंवेदनादभिन्नो ग्राह्याकारविवेकः प्रत्यक्षो न पुनः परोक्षाग्राह्याकारविवेकादभिन्न स्वसंवेदनं बुद्धः परोक्षमित्याचक्षाणो न परीक्षाक्षमः।
यहां बौद्ध अनुनय ( खुशामद ) करते हैं कि केवल रीते भूतलका दीख जाना ही तो घटकी अनुपलब्धि है, इस प्रकार भूतलकी उपलब्धि और घटकी अनुपलब्धिका तादात्म्य होनेपर भी केवल भूतलकी उपलब्धिको अनुपलब्धि स्वरूपपना नहीं है । उसीके समान वेद्याकारकी विमुक्ति रूप अनुपलब्धिके साथ ज्ञानकी स्वरूपसंवित्तिका तादात्म्य सम्बन्ध होनेपर भी बुद्धिकी स्वसम्वित्तिको विमुक्तिरूप अनुपलब्धिका परोक्षतारूप स्वभावपना नहीं आसकता है । क्योंकि व्यापकका व्याप्यके साथ व्यभिचार नहीं होता है । वृक्षपना व्यापक और शीशमपना व्याप्यके समान व्याप्यका ही व्यापकके साथ व्यभिचार होना सिद्ध है । अर्थात्- व्याप्यसे अधिक स्थानपर व्यापक रह जाता है।