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तत्वार्थचिन्तामणिः
नामासंसृष्टरूपा हि मतिरेषा प्रकीर्तिता ।
नातः कश्चिद्विरोधोऽस्ति स्याद्वादामृतभोगिनां ॥ १२७ ॥
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यह वही कूट है, इस प्रकार पूर्वकालवर्ती देखे गये और उत्तरकालवर्ती देखे जा रहे उसी एक पदार्थ में हो रही प्रतिभा तो एकस्व प्रत्यभिज्ञानस्वरूप है। तथा पूर्वकालमें देखे गये कूटके सदृशः दूसरे कूटके वर्तमान कालमें देखनेपर सादृश्य विषयमें हो रही यह प्रतिभा तो सादृश्य प्रत्यमिज्ञानस्वरूप मतिज्ञान ही निश्चित कियी गयी है । किन्तु शब्दकी अनुयोजनासे उत्पन्न हुवी यह प्रतिमा तो श्रुतज्ञान है। ऐसा समझो जैसे कि इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुये मतिज्ञान भी यदि शकी योजना प्ररूपित किये जांय तो वे श्रुतज्ञान हो जाते हैं । तिस ही प्रकार सम्भव प्रमाण, अभाव सम्बेदन, अर्थापत्ति प्रमाण तथा अनुमान प्रमाण भी समझ लेना । अर्थात्-सौमें पचास हैं, पसेरी
दो सेर अवश्य होंगे, ब्राह्मण है तो विद्या अवश्य होगी, इत्यादि ज्ञान सम्भवप्रमाण है। अष्टसहस्त्री प्रन्थको पढ चुका छात्र देवागमस्तोत्रका ज्ञाता अवश्य हो चुका होगा। चार बज गये हैं, तो तीन अवश्य ही बज चुके होंगे, ऐसी प्रतिपत्तिओंको कोई कोई पौराणिक पण्डित म्यारा सम्भवप्रमाण मानते हैं। तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति, इन पांच प्रमाणोंके द्वारा वस्तुका सद्भाव नहीं गृहीत होनेपर पुनः जिस प्रमाणसे उस प्रतियोगी वस्तुका अभाव साथ दिया जाता है, वह अभावप्रमाण है। अभावके आधारभूत वस्तुका ग्रहण कर और प्रतियोगीका स्मरणकर इन्द्रियों की अपेक्षा विना ही मनसे नास्तित्वका ज्ञान हो जाता को म्यारा छट्टा प्रमाण मानते हैं । वेद के कर्ता और सर्वज्ञके अभावको वे हैं। तथा अर्थापत्तिको भी उन्होंने न्यारा प्रमाण माना है, छह प्रमाणोंसे जान लिया गया अर्थ जिस पदार्थ के बिना नहीं हो सके, उस अदृष्ट अर्थकी कल्पना करानेवाले ज्ञानको अर्थापत्ति कहते हैं । बहि कार्य दाहका प्रत्यक्ष कर अग्निमें दहनशक्तिका प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्तिसे ज्ञान कर किया जाता है । दूसरी देश से देशान्तरको प्राप्त हो जानारूप हेतुसे सूर्यकी गतिका अनुमान कर अनुमानपूर्वक अर्थापत्तिद्वारा सूर्यमें गमनशक्तिका ज्ञान हो जाता है। यद्यपि सूर्यका गमन अधिक देरतक देखने पर चक्षु इन्द्रियसे जाना जा सकता है। किंतु कौन ऐसा ठलुआ बैठा है, जो कि घंटों ही सूर्यको देखता फिरे तथा चक्षु इन्द्रिय करके सूर्यको देखनेपर चकाचौंध हो जानेसे सूर्यका देखना अति कष्टसाध्य भी है। तीसरी श्रुतज्ञान ( आगमज्ञान ) पूर्वक अर्थापत्ति इस प्रकार है कि मोटा या स्थूल वक्षःस्थलवाला देवदत्त दिनमें नहीं खाता है, इस आप्तवाक्यको सुनकर देवदत्तके रात्रिभोजनका झन अर्थापत्ति से कर लिया जाता है। चौथी दृश्यमान गवयके साथ सादृश्यको धारनेवाले गौमें ज्ञानप्राद्यताका परिज्ञान हो जाता है। यानी सादृश्यविशिष्ट गौ या गोविशिष्ट - सारस्य तो उपमानले जानं किया गया है। गौके समान गवय होता है। केवल साना (ग) रोजमें
। मीमांसक अभाव प्रमाण अभाव प्रमाणसे साधते