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नहीं है, किन्तु उपमान ज्ञान द्वारा प्राथपना गौ या सादृश्यमें है, यह तो अर्थापत्ति से ही जाना जा सकता है। एवं पहिली अर्थापत्तिसे जान ली गयी शब्दमें वाचक सामर्थ्य से अनादि अनन्त कालतक शद्वव्यवहारकी प्रसिद्धि के लिये शद्वका नित्यपना द्वितीय अर्थापत्ति से जाना जाता है । यह पांचवीं अर्थापत्तिपूर्वक अर्थापत्ति है । अभाव प्रमाण द्वारा घरमें जीवित चैत्रका अभाव जानकर चैत्रका बाहर रहना छठी अभावप्रमाणपूर्वक अर्थापत्ति से जाना जाता है । इस प्रकार यह अर्थापत्ति प्रमाण है । तथा अविनाभावी हेतुसे साध्यका ज्ञान होना अनुमानप्रमाण माना गया है । सम्भव, अभाव, अर्थापत्ति, अनुमान, इतिहास, उपमान, आदिको विद्वानोंने न्यारा न्यारा स्वतंत्र प्रमाण माना है । किन्तु ये सब शद्वयोजनासे रहित होते हुये मतिज्ञान माने गये हैं । और नामके संसर्ग से युक्त होते हुये ये सम्पूर्ण सम्यग्ज्ञान श्रुतज्ञान मले प्रकार कह दिये जाते हैं । इस कारण अनेकान्त नीति अनुसार स्याद्वादरूप अमृतका भोग करनेवाले जैनोंके यहां कोई भी विरोध नहीं आता है । अन्य धर्मोसे द्वेष रखनेका विषबीज जिन्होंने खा लिया है, उन्हें तो सर्वत्र विरोध दोखेगा। यहां तो अपेक्षाओंसे अनेक धर्मआत्मक पदार्थोंकी सिद्धि प्रमाणोंद्वारा प्रतिपन्न हो चुकी है। एक धर्मका दूसरे धर्मके साथ यदि उपलम्भ नहीं होता तो विरोध होना सम्भव था । अन्यथा नहीं । अमृतका भोजन करनेवालोंके साथ विरोध करनेवाला एकान्तवादी स्वयं मारा जायगा ।
कपातिक
नामासंसृष्टरूपा प्रतिभा संभववित्तिरभाववित्तिरर्थापत्तिः स्वार्थानुमा च पूर्व मतिरित्युक्ता । नामसंसृष्टा तु सम्प्रति श्रुतमित्युभ्यमाने पूर्वापरविरोधो न स्याद्वादामृतभाजां सम्भाव्यते, तथैव युक्त्यागमानुरोधात् । तदेवं पूर्वोक्तया मल्या सह श्रुतं परोक्षं प्रमाणं सकलमुनीश्वरविश्रुतमुन्मूचितनिःशेषदुर्बतनिकरमिह तत्वार्यशास्त्रे समुदीरितमिति परीक्षकाचेतसि धारयन्तु स्वमज्ञातिशयवशादित्युपसंहरन्नाह ।
नामयोजना के संसर्गसे रहित - स्वरूप हो रहीं प्रतिभा बुद्धि, सम्भववित्ति, अभाववित्ति, अर्थापत्ति, स्वार्थानुमिति, प्रत्यभिज्ञानस्वरूप उपमिति, तर्कमति आदिक बुद्धियोंको पहिले मतिस्मृति " आदि सूत्रमें मतिज्ञानस्वरूप ऐसा कह दिया गया है। और अब वाचकशद्व नामोंके संसर्गसे युक्त हो रहीं प्रतिभा आदिक बुद्धियोंको श्रुतपना ऐसा कहा जा रहा है । स्याद्वाद रूपी अमृतका सेवन करनेवाले अनेकान्तवादी जैनोंके यहां इस प्रकार पूर्ववर्ती और पश्चिमवर्ती प्रथमें कोई विरोध दोष नहीं सम्भावित होता है। क्योंकि तिस प्रकार ही युक्ति और आगमके अनुरोध से निर्णीत हो रहा है। अर्थात् प्रतिभा, सम्भव, आदिकज्ञान तो शद्वयोजना नहीं कर देनेपर हुये मतिज्ञान हैं । और शद्वयोजनाके साथ हो रहे प्रतिभा आदिकज्ञान तो श्रुत हैं । ति कारण इस प्रकार पूर्वमें कही गयी मतिके साथ यह इस सूत्रमें कहा गया श्रुतज्ञान ये दोनों अविशद प्रकाशी होनेसे परोक्ष प्रमाण है। यह सिद्धान्त सम्पूर्ण मुनीश्वरोंमें प्रसिद्ध है । मतिज्ञान और
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