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तत्वार्थ कार्तिके
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हो जाने के कारण वे श्रुतज्ञान बन जाते हैं। स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, आदि श्रुतज्ञान कहे जाते हैं।
शद्वयोजना हो जानेपर
उत्तरप्रतिपचिः प्रतिभा कैचिदुक्ता सा श्रुतमेव न प्रमाणान्तरं, सहयोजनासद्भावात् । अत्यन्ताभ्यासादाशुप्रतिपचिरशद्वजा कूटदुमादावकृताभ्यासस्याशुप्रवृत्तिः प्रतिभा परैः प्रोक्ता । सा न श्रुतं, सादृश्यमत्यभिज्ञानरूपत्वाद्यस्यास्तयोः पूर्वोचरयोहिं दृष्टदृश्यमानयोः कूटदुमयोः सादृश्यप्रत्यभिज्ञा ज्ञटिस्येकतां परामृषम्ती तदेवेत्युपजायते । सा च मतिरेव निमिवेत्याह ।
विशिष्ट क्षयोपशम अनुसार प्रथमसे ही उत्तरकी समीचीन प्रतिपत्ति हो जाना प्रतिभा है । किन्हीं लोगोंने उसको न्यारा प्रमाण कहा है। किन्तु हम जैनोंके सिद्धान्त अनुसार वह प्रतिभा श्रुतज्ञान ही कही गयी हुयी मानी गयी है। श्रुतसे न्यारे प्रमाणखरूप नहीं है। क्योंकि aran शोंकी योजनाका सद्भाव है । किन्तु अत्यन्त अभ्यास हो जानेसे कृषक जनोंको
छछूट, वृक्ष, झोंपडी, आदिमें शद्ब बोळे विना ही जो उनकी शीघ्र प्रतिपत्ति हो जाती है । तथा प्रवृतिका अभ्यास नहीं किये हुये भी पुरुषको झटिति, कूट, वृक्ष, ज, आदिमें उस प्रतिभाके अनुसार प्रवृत्ति हो जाती है। दूसरोंके द्वारा अच्छी कही गयी जो यह अम्यासी पुरुषकी प्रतिमा है, वह तो श्रुत नहीं है। क्योंकि वह प्रतिपत्ति तो सादृश्यप्रत्यभिज्ञानरूप होने के कारण मतिज्ञानस्वरूप है । पहिले कहीं देखे हुये और बीचमें अम्पास छूट जानेपर मी नवीन देखे जा रहे कूट, दुम आदिमें सादृश्यप्रत्यमिज्ञानस्वरूप - प्रतिभा द्वारा प्रवृत्ति हो गयी है । पहिले कहीं देख किये गये और अब उत्तरकालमें देखे जा रहे कूट, वृक्ष आदिके एकपनका परामर्ष कराती मी " यह वही है इस प्रकार झट सादृश्य प्रत्यभिज्ञा उपज जाती है। वह मतिज्ञान ही निश्चित कर दी गयी है। कोई कोई प्रतिभा अनुमान - मतिज्ञान स्वरूप भी हो जाती है। अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदिक अविनाभावी हेतुओंसे अमकी तेजी मन्दीको प्रतिभाशाली व्यापारी जान लेते हैं । जव प्रतिभाका मतिके मेदोंमें या श्रुतमें अन्तर्भाव हो जाता है। हां, ये वैसे ही कूट, वृक्ष आदिक है, ऐसा विषय करनेवाली प्रतिभा तो प्रत्यभिज्ञा है । इस बातका प्रम्यकार स्पष्ट निरूपण करें देते है । सो सुन को । 1
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सोऽयं कूट इति प्राच्यौदीच्यदृष्टेक्षमाणयोः ।
सादृश्ये प्रत्यभिज्ञेयं मतिरेव हि निश्चिता ॥ १२५ ॥ शङ्कानुयोजनात्त्वेषा श्रुतमस्त्वक्षविचिवत् । संभवाभावसंविचिरर्थापचिस्तथानुमा ॥ १२६ ॥