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तत्वार्थचिन्तामणिः
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अवस्थाओं को अविद्याना भी शद्वब्रह्म के परमार्थरूपसे तत्पने यानी विद्यापनेकी सिद्धि नहीं होनेपर प्रसिद्ध नहीं हो पाता है ।
चतुर्विधा हि वाग्वैखरी मध्यमा पश्यन्ती सूक्ष्मा चेति । तत्राक्षज्ञानं विनैव वैखर्या मध्यमया चात्मनः प्रभवति स्वसंवेदनं च अन्यथान्योन्याश्रयणस्य दुर्निवारत्वात् । तत एवानवस्थापरिहारोपि ।
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उक्त छह वार्तिकका विवरण करते हैं । तहां शद्वाद्वैतवादियोंके मन्तव्यका अनुवाद यों हैं कि वैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती और सूक्ष्मा इन भेदोंसे शद्ववाणी निश्चयसे चार प्रकारकी है । मनुष्य, पशु, पक्षी आदिकोंके बोलने, सुननेमें आ रही स्थूलवाणी वैखरी है । और जाप देते समय या चुपके पाठ करते समय अन्तरंग में जल्प की गयी श्वास उङ्घासकी नहीं अपेक्षा रखती हुयी पतली वाणी मध्यमा है । तथा वर्ण, पद, मात्रा, उदात्त, आदि विभागोंसे रहित हो रही वाणी सूक्ष्मा है, जो कि पदार्थोंका जानना स्वरूप है । एवं अन्तरंग ज्योतिस्वरूप सूक्ष्मावाणी जगत् सर्वदा सर्वत्र व्याप रही है । तिन वाणियोंमेंसे वैखरी और मध्यमाके विना भी इन्द्रियजन्यज्ञान और आत्माका स्वसम्वेदनप्रत्यक्ष उत्पन्न हो जाता है । अन्यथा हम शद्वाद्वैतवादियोंके ऊपर आये हुये अन्योन्याश्रयदोषका निवारण कठिनतासे भी नहीं हो सकेगा । और तिस ही कारण यानी इन्द्रियज्ञान और आत्मज्ञानका मध्यमा वैखरी वाणियोंके साथ संसर्ग नहीं माननेसे ही अनवस्थादोषका परिहार भी सुलभतासे हो जाता है । अन्योन्याश्रय दोष अपेक्षा हटाकर उत्तरोत्तर अन्योंकी अपेक्षा लगा देनेसे झट वहां अनवस्थादोष भी लग ही जाता है । उसी प्रकार अनवस्थाका परिहार भी हो जाता है, जैसे कि अन्योन्याश्रय उल गया था।
जहां लगता है परस्परकी
न चैवं वाग्रूपता सर्ववेदनेषु प्रत्यवमर्शिनीति विरुध्यते पश्यंत्या वाचा विनाशज्ञानादेरप्यसंभवात् । तद्धि यदि व्यवसायात्मकं तदा व्यवसायरूपां पश्यंतीवाचं कस्तत्र निराकुर्यादव्यवसायात्मकत्वप्रसंगात् । न चैवमन्योन्याश्रयोनवस्था वा युगपत्स्वकारणवशाद्वाक्संबेदनयोस्तादात्म्यमापन्नयोर्भावात् ।
इस प्रकार माननेपर हम शद्वाद्वैतवादियोंके प्रति यदि कोई यों कटाक्ष करे कि सम्पूर्ण ज्ञानोंमें विचार करनेवाली मानी गयी वागुरूपता तो यों विरुद्ध पड जायगी, जब कि आप इन्द्रियज्ञान और आत्मज्ञानमें दो वाणियोंका निषेध कर रहे हैं। इसपर हम शद्वाद्वैतवादिओंका यह कहना है कि यह विरोध हमारे ऊपर नहीं आ सकता है । कारण कि पश्यंती वाणीके विना इन्द्रियज्ञान, आत्मज्ञान, ज्ञानज्ञान, आदिका भी असम्भव है । अर्थात् — इन्द्रियज्ञान आदिमें पश्यंती वाणीके साथ तादात्म्य हो जानेसे वाक्स्वरूपपना अभीष्ट किया है। भलें ही वे मध्यमा वैखरीस्वरूप नहीं हों, जब कि वे इन्द्रियज्ञान आदिक यदि निश्चय आत्मक हैं, तब व्यवसायस्वरूप पश्यंती