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तत्वार्थश्लोकवार्तिके
साथ किसी पदार्थका संसर्ग करनेके लिये झंझटों के मिलानेकी आवश्यकता नहीं है। उसी प्रकार पश्यन्ती नामक वाणीका संसर्ग करनेके लिये ज्ञानको जानने, शब्दोंको सुनने आदिकी आकांक्षा नहीं है । अतः वैखरी और मध्यमाके संसर्ग करनेमें अच्छे ढंग से कह दिया गया अन्योन्याश्रय दोष यहां पश्यन्तीके संसर्गमें असम्भव है ।
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व्यापिन्या सूक्ष्मया वाचा व्याप्तं सर्वं च वेदनं ।
तया विना हि पश्यंती विकल्पात्मा कुतः पुनः ॥ ९३ ॥ मध्यमा तदभावे व निर्बीजा वैखरी खात् ।
ततः सा शाश्वती सर्ववेदनेषु प्रकाशते ॥ ९४ ॥
अभीतक शद्वाद्वैतवादी ही कहें जा रहे हैं कि और शब्द ज्योतिःस्वरूप होकर सबके अन्तरंग प्रकाश रही, नित्य, व्यापक, सूक्ष्मा, नामकी वाणीकरके तो सम्पूर्ण ही ज्ञान व्याप्त हो रहे हैं । कारण कि उस सूक्ष्माके विना तो फिर विकल्पस्वरूप पश्यन्तीवाणी भी कहांसे होगी ! और उम्र पश्यन्तीवाणीके अभाव हो जानेपर पुनः वह बीजरहित हुयी मध्यमावाणी भला कहां ठहरी ! और मध्यमा शद्वके विना भला वैखरी कहां टिक सकती है? निमित्त विना नैमित्तिक नहीं । तिस कारण वह सर्व वाणियोंकी आद्यजननी सनातन, नित्य, सूक्ष्मा वाणी सम्पूर्ण ज्ञानोंमें प्रकाशती रहती है । इन्द्रिय, अनिन्द्रिय ज्ञानोंमें जो भी कुछ प्रकाश होता दीख रहा है । सब सूक्ष्मावाणीरूप नानीकी सुतावरूप पश्यन्ती मैयासे प्राप्त हुआ समझो ।
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इति येपि समादध्युस्तेप्यनालोचितोक्तयः । शब्रह्मणि निर्भागे तथा वक्तुमशक्तितः ॥ ९५ ॥
न ह्यवस्थाश्चतस्रोस्य सत्या द्वैतं प्रसंगतः ।
न च तासामविद्यात्वं तत्त्वासिद्धौ प्रसिद्धति ॥ ९६ ॥
अब आचार्य महाराज कहते हैं कि इस उक्त प्रकार जो भी कोई शद्वाद्वैतवादी समाधान करेंगे वे भी विना विचारे हुये अयुक्त भाषण करनेवाले हैं। क्योंकि भागरहित, निरंश, अखण्ड श ब्रझमें तिस प्रकार वाणीके चार भेद कर कहनेके लिये अशक्ति है । अर्थात् — निरंश शद्व ब्रह्म अकेला चार भेदोंसे नहीं कहा जा सकता है। चार भेदोंसे कहनेपर उसके चार भाग हुये जाते हैं । जो कि अद्वैतवादियोंको अभीष्ट नहीं है । इस शद्बब्रह्मकी भिन्न भिन्न चार अवस्थायें सत्य नहीं है। क्योंकि चार अवस्थाओंको सत्य माननेपर तो द्वैतका प्रसंग हो जायगा । उन चार