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तत्वार्थ लोकवार्तिके
वाणीका उनमें से कौन निराकरण कर सकेगा ? अन्यथा इन्द्रियज्ञान आदिकोंको अनिश्चय आत्मकपन हो जानेका प्रसंग होगा किन्तु हम शद्वाद्वैतवादियोंके समान जैनोंने भी इन्द्रियज्ञान, आत्मज्ञानको निश्चयआत्मक स्वीकार किया है । वह निश्चयस्वरूप प्राप्त होना पश्यन्ती वाणीका ही माहात्म्य है । इस प्रकार हम अद्वैतवादियोंके यहां अन्योन्याश्रय अथवा अनवस्थादोष नहीं आता है । क्योंकि अपने कारणोंके वशसे तदात्मकपनेको प्राप्त हो रहे ही वचन और ज्ञानोंकी युगपत् उत्पत्ति हो रही मानी गयी है।
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यत्पुनरव्यवसायात्मकं दर्शनं तत्पश्यंत्यापि विनोपजायमानं न वाचाननुगतं सूक्ष्मया वाचा सहोत्पद्यमानत्वात् तस्याः सकळसंबेदनानुयायिस्वभावत्वात् । तया विना पुनः पश्यंत्या मध्यमाया वैखर्याश्वोत्पत्तिविरोधादन्यथा निर्बीजत्वप्रसंगात् । ततस्तद्वीजमिच्छता तदुत्पादनशक्तिरूपा सूक्ष्मा वाक् व्यापिनी सततं प्रकाशमानाभ्युपगंतव्या । सैवानुपरिहरत्यभिधानाद्यपेक्षायां भवेदन्योन्यसंश्रय इति दूषणं " अभिलापतदंशानामभिलापविवेकतः । अप्रमाणप्रमेयत्वमवश्यमनुषज्यते " इत्यनवस्थानं च अभिलापस्य तद्भागानां वा पराभिकापेन वैखरीरूपेण मध्यमारूपेण च विनिर्बाधसंवेदनोत्पत्तेर प्रमाणप्रमेयत्वानुषंगाभावादिति ये समादधते, तेप्यनाळोचितोक्तय एव निरंशशद्वब्रह्मणि तथा वक्तुमशक्तेः । तस्यावस्थानां चतसृणां सत्यत्वेऽद्वैतविरोधात् । तासामविद्यात्वाददोष इति चेन, शब्रह्मणोनंशस्य विद्यात्वसिद्धौ तदवस्थानामविद्यात्वामसिद्धेः ।
द्वाद्वैतवादी ही अपने मतको प्रकट किये जा रहे हैं कि जो फिर अविकल्पक या अनिश्चय आत्मक सत्, चित्, सामान्य आलोचनस्वरूप दर्शन है, वह उस पश्यन्ती वाक्के विना भी उपज रहा है । किन्तु सभी वाणियोंसे अनुगत नहीं होय यह नहीं समझना । कारण कि चैतन्य ज्योतिस्वरूप सूक्ष्मा वाणीके साथ अन्वित हो रहा ही दर्शन उपज रहा है । वह सूक्ष्मावणी तो सम्पूर्ण सम्वेदनों के साथ अनुयायी होकर लगे रहना स्वभाववाली है । सर्वव्यापक उस सूक्ष्माके विना तो फिर पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी, की उत्पत्ति हो जानेका विरोध है । सब वाणियोंका आद्य कारण सूक्ष्मा है । यदि आध कारणके विना ही कार्य हो जावे तो सूक्ष्माके विना पश्यन्तीके हो जानेपर और पश्यन्तीके विना मध्यमाके उपज जानेपर तथा मध्यमाके विना वैखरीकी उत्पत्ति हो जानेपर उक्त कार्योंको बीजरहितपनेका प्रसंग हो जायगा कारणोंके विना तो किसीके यहां भी कार्य होता हुआ नहीं माना गया है । तिस कारण उन तीनों वाणियोंके बीजभूत कारणको चाहनेवाले विद्वानों करके उनपश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी, को उत्पन्न कराने की शक्तिस्वरूप और सर्वदा, सर्वत्र, व्यापिनी होकर प्रकाश कर रही ऐसी सूक्ष्मा वाणी अवश्य स्वीकार करना चाहिये । वही आकाशके समान नित्य होकर सर्वत्र व्यापरही सूक्ष्मा वाणी ही वाचकशद्व, संकेतस्मरण, आदिकी अपेक्षा होनेपर