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तत्वार्थ लोक वार्तिके
रहे मतिज्ञानस्वरूप हैं । किन्तु शद्वकी अनुयोजना कर देनेसे नाम करके आश्रित हो जानेपर तो द्वितीय बचे हुये श्रुतज्ञानरूप वे हो जाते हैं । यह सिद्धान्त स्थित हो चुका ।
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अत्राकलंकदेवाः प्राहुः " ज्ञानमाद्यं स्मृतिः संज्ञा चिंता चाभिनिबोधिकं । प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् " । इति तत्रेदं विचार्यते मतिज्ञानादाद्यादाभिनिबोकपर्यताच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनादेवेत्यवधारणं श्रुतमेव शब्दानुयोजनादिति वा ? यदि श्रुतमेव शब्दानुयोजनादिति पूर्वनियमस्तदा न कश्विद्विरोधः शब्दसंसृष्टज्ञानस्याश्रुतज्ञानत्वव्यवच्छेदात् ।
उक्तका विवरण यों है कि इस प्रकरण में श्री अकलंकदेव महाराज प्रकृष्टरूपसे भाषण कर रहे हैं कि नाम योजना से पहिले हुये स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, और अनुमानज्ञान तो आदिमें हुये परोक्ष मतिज्ञानरूप हैं | और शब्दों की पीछे योजना कर देनेसे तो द्वितीय शेष रहे परोक्ष श्रुतस्वरूप हैं । इस प्रकार अकलंकदेवके उस व्याख्यानमें यह विचार चलाया जाता है कि अवग्रहको आदि लेकर अनुमानपर्यन्त व्यवस्थित हो रहे आदिम मतिज्ञान से शेष रहा श्रुत ( उद्देश्य ) क्या शद्वकी पीछे पीछे योजना कर देनेसे ही हो जाता है, इस प्रकार एव लगाकर अवधारण किया जाता है ? अथवा श्रुत ही शोकी अनुयोजनासे होता है । इस प्रकार एवकार लगाकर अवधारण किया जाता है ? बताओ | यदि “ श्रुतम् राद्वानुयोजनात् " यहां श्रुत ही शद्वकी अनुयोजनासे होता है, इस प्रकार प्रथम वियदल में एवकार द्वारा नियम किया जायगा, तब तो हमें श्री अकलंकदेव के व्याख्यानसे कोई विरोध नहीं है । क्योंकि शव के साथ संसर्गको प्राप्त हो रहे ज्ञानके श्रुतसे भिन्न अश्रुतज्ञानपनेका तिस ही प्रकार अवधारण करनेसे व्यवच्छेद होना सम्भवता है । भावार्थ-शद्वकी योजना से जो ज्ञान होगा वह श्रुत ही होगा । श्रुतभिन्न किसी मतिज्ञान, अवधिमन:पर्यय या केवलज्ञानस्वरूप नहीं हो सकता है । इम प्रेरणा करते हैं कि श्रीअकलंकदेवकी सिद्धान्तअविरुद्धचर्चाओंको अविलम्ब स्वीकार कर लेना चाहिये ।
अथ शब्दानुयोजनादेव श्रुतमिति नियमस्तदा श्रोत्रमतिपूर्वकमेव श्रुतं न चक्षुरादिमतिपूर्वकमिति सिद्धांतविरोधः स्यात् । सांव्यवहारिकं शाब्दं ज्ञानं श्रुतमित्यपेक्षया तथा नियमे तु नेष्टबाधास्ति चक्षुरादिमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्य परमार्थताभ्युपगमात् स्व समयसंप्रतिपत्तेः ।
यदि अब शद्वकी अनुयोजना से ही श्रुत होता है । इस प्रकार नियम किया जायगा तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानस्वरूप निमित्तसे ही तो श्रुतज्ञान हो सकेगा । चक्षु, रसना आदि इन्द्रियोंसे जन्य मतिज्ञानोंको निमित्त कारण मानकर श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा । किन्तु रसना आदि इन्द्रियों से परम्परया तथा अन्य प्रकारोंसे भी अनेक अवाच्य अर्थोके हो रहे श्रुतज्ञान जगत् में प्रसिद्ध हैं ।