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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः अतः उक्त प्रकार नियम करनेपर सिद्धान्तसे विरोध आवेगा। हां, उपदेश देना सुनना, या शास्त्रको पढना, बांचना, आगमगम्य प्रमेयोंको युक्तियोंसे समझाना आदिक समीचीन व्यवहार में चालू हो रहे तो शद्वजन्यज्ञान सभी श्रुत हैं। इस अपेक्षा करके यदि तिस प्रकार शद्वयोजना से ही श्रुत है, इस प्रकार नियम किया जायगा, तब तो इष्टसिद्धान्तसे कोई बाधा नहीं आती है। क्योंकि चक्षु आदिसे उत्पन्न हुये मतिज्ञानको पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न हुये भी श्रुतों को परमार्थरूप से श्री अकलंकदेवने स्वीकार कर लिया है । इस प्रकार अपने सिद्धान्तकी समीचीन प्रतिपत्ति हो जाती है । स्याद्वाद सिद्धान्तकी अक्षुण्ण प्रतिष्ठा बनी रहनी चाहिये । अथवा “ न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शद्वानुगमादृते । अनुविद्धमिवाभाति सर्व शब्द्वे प्रतिष्ठितं ॥ " इत्येकांतं निराकर्तुं प्राग्नामयोजनादाद्यमिष्टं न तु तन्नामसंसृष्टमिति व्याख्यानमा कलंकमनुसर्तव्यं । तथा सति यदाह परः " वाग्रूपता चेदुत्क्रामेदवबोधस्य शाश्वती । न प्रकाशः प्रकाशेत सा हि प्रत्यवमर्शिनी " इति तदपास्तं भवति, तया विनैवाभिनिवोधिकस्य प्रकाशनादित्यावेदयति । 1 अथवा श्री अकलंकदेवका भाषण संभवतः इस अपेक्षासे सुसंगत कर लेना चाहिये कि शद्वानुविद्धवादी कहते हैं कि जहां स्थलपर जो अर्थ रखा है या आत्मामें जिस पदार्थका ज्ञान हो रहा है, वहां वह शब्द अवश्य है । और जहां शब्द है, वहां अर्थ मी अवश्य है । तभी तो गुड, मिष्टान्न, निम्बू रस, आदि शङ्खों के बोलनेपर ही मुखसे लार टपक पडती है। अधिक प्रिय या अधिक अप्रिय पदार्थोंके स्थलपर आदर - अंनादरसूचक शब्द स्वयं मुखसे निकल जाते हैं। चुपके चुपके माला के ऊपर भगवान् का नाम जप लेते हैं । शद्व और ज्ञानका अजहत् सम्बन्ध है । जगत् वह ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं है, जो कि शद्वका अनुगमन करनेके विना ही हो जाय । माळा पोये गये मोतियों के समान सम्पूर्ण पदार्थ बींधे हुये होकर ही मानूं शद्ध में प्रतिष्ठित हो रहे हैं । ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार शब्द के एकान्तका निराकरण करनेके लिये नामयोजना के पहिले तो आदिम मतिज्ञान इष्ट किया गया है । किन्तु नामके संसर्गसे युक्त हो रहा वह ज्ञान मतिज्ञान नहीं है, किन्तु श्रुत है, इस प्रकारका अललंकदेव के द्वारा सृजे गये व्याख्यान का श्रद्धापूर्वक अनुकरण करना चाहिये । और तिस प्रकार होनेपर यानी शह्नोंके संसर्गसे रहित मतिज्ञानकी सिद्धि हो चुकनेपर यह मन्तव्य भी उस शद्वैकान्तवादीका निराकृत कर दिया जाता है, जो कि परवादी अपने घरमें बखान रहा है कि सर्वदा नित्य रहनेवाला शङ्खखरूपपना यदि ज्ञानोंमेंसे उछालकर दूर कर दिया जावेगा, तब तो ज्ञानका प्रकाश ही प्रकाशित नहीं हो सकेगा । क्योंकि वह शद्ब स्वरूपपना ही तो ज्ञानमें अनेक प्रकारके विचारोंको करनेवाला है । श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं कि सभी अनभिलाप्य या प्रज्ञापनीय भावोंमें तो शद्वयोजना स्वीकार करना अनुचित है । उस योजना के बिना भी अवग्रह आदिक और स्मृति आदिक मतिज्ञान जगत् में ६३५
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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