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तवार्यचिन्तामणिः
चेला है, काला है, नीला है, आदि शब्दोंकी योजनासे ही यदि श्रुतपना व्यवस्थित किया जायगा तो श्रोत्रसे अन्य चक्षु, रसना, घ्राण, आदि इन्द्रियजन्य मतिज्ञानोंको निमित्त पाकर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा। भावार्थ-शद्वकी योजनासे ही यदि श्रुत समझा जायगा, तब तो श्रोत्र मतिपूर्वक ही श्रुत होगा। चक्षु आदि मतिपूर्वक श्रुत नहीं हो सकेगा। किन्तु ये बात जैनसिद्धान्तके विरुद्ध पडती है । हां, शब्दकी योजनासे ही श्रुत होता है । इस प्रकार उन अकलंकदेवके वचन यदि समीचीन व्यवहारकी अपेक्षा करके बखाने गये हैं तब तो अपने इष्टसिद्धान्तको बाधा नहीं आ सकेगी। क्योंकि अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानोंको निमित्तकारण मानकर होते हुये श्रुतज्ञान भी भले प्रकार जाने जा रहे हैं । बात यह है कि श्रुतमें शद्ध योजनाका नियम करना आवश्यक नहीं है। अवाच्य पदार्थोंके अनेक श्रुतशान होते हैं । स्पर्शन आदि इन्द्रियोंसे अर्थोका मतिज्ञान कर अनन्त अर्थान्तरोंका ज्ञान होता है । वह सब श्रुत ही है । उपशम श्रेणी, क्षपकश्रेणीमें जो ध्यान हो रहे हैं, वे सब श्रुतबानके समुदाय हैं। वहां शद्ध नहीं बोले जा रहे हैं । शोकप्रस्त, वेदनापीडित या मनमें कलपते हुये मनुष्यको शद्वयोजनाके विना ही असंख्य श्रुत हो रहे हैं ।
न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शदानुगमाहते । इत्येकांतं निराकर्तुं तथोक्तं तैरिहेति वा ॥ ८८ ॥ ज्ञानमायं स्मृतिः संज्ञा चिंता चाभिनिबोधिकं । प्राग्नामसंश्रितं शेषं श्रुतं शदानुयोजनात् ॥ ८९ ॥
अथवा शद्वाद्वैतवादी कहते हैं कि लोकमें ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं हैं जो कि शब्दके पीछे पीछे अनुगमन करनेके विना ही हो जाय, समी ज्ञान और ज्ञेय शब्दमें अनुविद्ध हो रहे हैं। इस प्रकारके शद्वैकान्तका निराकरण करने के लिये यहां उन अकलंक देवने तिस प्रकार शब्दकी योजनासे पहिले तक मतिज्ञान होता है । और पीछे शब्दकी योजना लगा देनेसे श्रुतबान हो जाता है। ऐसा कहा है, सो अकलंककथन ठीक. ही है । इन्द्रियोंद्वारा स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द, सुख आदिके शान तो मतिज्ञान है । और यह उससे कोमल है, यह उससे अधिक मीठा है, यह उससे न्यून काला है, यह कस्तूरीकी गन्ध उग्र है, पुष्पकी गन्ध मन्द है, इत्यादिक शब्दयोजना कर देनेपर हुये वे ज्ञान श्रुतज्ञान समझे जाते हैं । शिष्यको समझानेके लिये भले ही हम चार ज्ञानोंको उपचारसे शब्द द्वारा कहे जाने योग्य कह दें, किन्तु वस्तुतः देखा जाय तो श्रुतज्ञानके अतिरिक्त किसी भी ज्ञानमें शहूयोजना नहीं लगती है। श्रीअकलंक देवका यही अभिप्राय है कि शब्दकी योजनासे पहिले पहिले हुये अवग्रह आदिक और स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, तथा अमिनिबोध ये सब ज्ञान आदिमें हो
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