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________________ तस्वार्थ श्लोकवार्तिके स्याद्वादियों के आगमको ही प्रमाणपनेकी सिद्धि होती है । बाधकप्रमाणोंके असम्भवका भले प्रकार निश्चित हो जाना ही प्रमाणपनेका प्रयोजक साधन है । यह व्यवस्था करा दी गयी है । सर्वथा एकान्तों वैसा प्रमाणपना असंभव है । भगवान् श्री समन्तभद्राचार्यकी भावादि एकान्तोंके निराकरण में प्रवीण हो रही नीतिसे और भविष्य में कही जानेवाली नीतिसे सर्वथा एकान्तों में प्रमाणता सिद्ध नहीं हो पाती है । अतः चारों ओर कल्याणको प्रसारनेवाले न्यायसे आईत प्रवचनको ही प्रमाणपना दृढ निर्णीत किया जाता है। यह संक्षेपसे हमने कह दिया है । उस समीचीन श्रुतके भेद प्रभेद उक्त सूत्र अनुसार समझ लेने चाहिये । प्रामाण्य का निश्चय वहां मले प्रकार आत्मा अधीन किया जाकर अब श्री अकलंक देवके ग्रन्थका अनुवाद करते हुये विचार चलाते हैं । इस प्रकार ल्यप् प्रत्ययवाले छड् न्यारे न्यारे वाक्य बनाकर उक्त कथनका उपसंहार करदिया है । और भविष्य कथनकी प्रतिज्ञा कर दी है। अब यहां दूसरे प्रकरणका आरम्भ किया जाता है । ६३२ अत्र प्रचक्षते केचिच्छूतं शद्वानुयोजनात् । तत्पूर्वनियमाद्युक्तं नान्यथेष्टविरोधतः ॥ ८५ ॥ शद्वानुयोजनादेव श्रुतं हि यदि कथ्यते । तदा श्रोत्रमतिज्ञानं न स्यान्नान्यमतौ भवम् ॥ ८६ ॥ यद्यपेक्ष्य वचस्तेषां श्रुतं सांव्यवहारिकं । स्वेष्टस्य बाधनं न स्यादिति संप्रतिपद्यते ॥ ८७ ॥ यहां कोई अकलंक देव ऐसा कह रहे हैं कि शद्वकी पीछे योजना लग जानेसे वह ज्ञान 1 होंगे वे सब श्रुत हो जाता है। इसपर हम दो विकल्प उठाते हैं कि शद्वकी योजना कर देनेसे श्रुत ही होता है ? अथवा श्रुतशद्वकी अनुयोजनासे ही हो जाता है ? श्रुत ही शद्वकी योजनासे होता है, इस प्रकार पहिला नियम करनेसे तो श्री अकलंकदेवका कहना युक्तिपूर्ण है । कोई विरोध नहीं है। शद्वकी योजना करनेके पीछे जो कोई वाक्य अर्थके ज्ञान गुरु या शिष्यके श्रुतज्ञान ही तो हैं। यदि अन्यथा यानी शद्वकी अनुयोजनासे ही श्रुत होता है, ऐसा उत्तर अवधारण लगाया जायगा, तब तो इष्टसिद्धान्तसे विरोध पडेगा । क्योंकि श्रुतज्ञानको यदि शकी अनुयोजना करनेसे ही श्रुतपना कहा जायगा, तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्यज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकेगा। क्योंकि शव के श्रावणप्रत्यक्षको श्रोत्र मतिज्ञान कहते हैं। उसमें शद्वकी योजना लग जानेसे तो वह श्रुत बन बैठेगा। दूसरी बात यह है कि ज्ञानमें घट है, पट है, पण्डित है,
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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