________________
तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
aamaanaamaanaanamanna
सुना भी जाता है कि सामवेदकी वाणी करके साममंत्रोंको पढ़ा जाता है। उससे अनेक रोगोंका निवारण हो जाता है। ऋग्वेदकी ऋचायें अमुक ऋषियों के द्वारा बनायी गयीं हैं। वेदोंकी उत्पत्तिके लिये शुक्ल यजुर्वेदमें लिखा है कि " ततो विराडजायत विराडो अधिपूरुषः सजातो अत्यरिच्यत पश्चादभूमिमयो पुरः॥१॥ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतः संभृतं पृषदाज्यम् । पंशूस्तायकेवायव्यानारण्या ग्राम्याश्च ये ॥२॥ तस्माद्यज्ञात्सर्वहुत ऋचा सामानि जझिरे। छन्दांसि जहिरे तस्माथजुस्तस्मादजायत ॥३॥ तस्मादश्वा अजायन्त येके चोभयपादतः। गावोह जबिरे तस्मात्तस्माजाता अजावयः॥४॥ इस प्रकार श्रुतियें जब उत्पन्न हुयीं सुनी जा रही है, तो भला यह वेदका अपौरुषेयपना कहां रहा ? सामवेदको गानेवाले या ऋचाओंके बनानेवाले यह आदि ही उनके कर्ता हैं। - प्रत्यभिज्ञायमानत्वं नित्यैकान्तं न साधयेत् ॥ ५६ ॥
पौर्वापर्यविहीनेथें तदयोगाद्विरोधतः। पूर्वदृष्टस्य पश्चाद्या दृश्यमानस्य चैकताम् ॥ ५७ ॥ वेचि सा प्रत्यभिज्ञेति प्रायशो विनिवेदितम् ।।
वेदका नित्यपना सिद्ध करनेके लिये मीमांसक लोग प्रत्यभिज्ञान द्वारा जान लिया गयापन हेतु देते हैं । अर्थात्-वेद नित्य है, क्योंकि यह वही है, इस प्रकार एकत्व प्रत्यभिज्ञान सदासे वेदका होता चला आया है। इसपर हम जैनोंका विचार है कि वह प्रत्यभिज्ञानका विषयपना हेतु भी वेदके एकान्तरूपसे नित्यपनेको सिद्ध नहीं करावेगा। कारण कि पूर्व, अपर, अवस्थाओंसे रहित हो रहे कूटस्थ पदार्थमें उस एकत्व प्रत्यभिज्ञानके होनेका अयोग है । क्योंकि विरोध दोष आता है । कूटस्थ तो जैसाका तैसा ही रहेगा रोमानमात्र मी पलट नहीं सकता है । पहिले यदि प्रत्यभिबानका विषय नहीं था, तो प्रत्यभिज्ञान उठानेपर भी प्रत्यभिज्ञान द्वारा क्षेय नहीं हो सकता है। पहिले देखा जा चुकापन और अब देखा जा रहापन, ये परिवर्तित धर्म कूटस्थमें नहीं टिक सकते हैं । द्रष्ट होगा तो द्रष्ट ही रहेगा, और यदि दृश्यमान हो गया तो सदा, दृश्यमान ही सबको बना रहेगा । पहिले कालमें देखे हुये पदार्थकी पीछे वर्तमानमें देखे जा रहे पदार्थके साथ एकताको जो ज्ञान जानता है, वह प्रत्यभिज्ञान है । इस प्रकार प्रायः कई बार हम पूर्व प्रकरणोंमें विशेषरूपसे निवेदन कर चुके हैं । अतः कथंचित् पूर्व, उत्तर अवस्थाओंको थोडा पलटते हुये कालांतरस्थायी पदार्थमें प्रत्यभिज्ञान होना सम्भवता है।
दृष्टत्वदृश्यमानत्वे रूपे पूर्वापरे न चेत् ॥ ५॥ भावस्य प्रत्यभिज्ञानं न स्याचत्राश्वश्रृंगवत् ।