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तत्वार्थचिन्तामणिः
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तदनित्यात्मकः शब्दः प्रत्यभिज्ञानतो यथा ॥ ५९॥ देवदत्तादिरित्यस्तु विरुद्धो हेतुरीरितः।
यदि मीमांसक यों कहें कि वैदिकशब्दोंकी पूर्वकालमें दृष्टता या श्रुतता और वैदिक शब्दों का वर्तमानमें दृश्यमानपना या श्रूयमाणपना ये दो स्वरूप कोई पहिले पीछेके नहीं हैं, ये तो केवल औपाधिक भाव हैं । अतः शब्दकी कूटस्थनित्यताका बालाय. मी टूटना नहीं होता है। इस प्रकार उनके कहनेपर तो हम जैन कहते हैं कि यदि पदार्थोको अपनी गांठके स्वरूपोंसे रहित माना जायगा, तब तो घोडेके सींग समान किसी भी पदार्थका वहां प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। यदि उन पदार्थोंमें प्रत्यभिज्ञान होना माना जायगा, तब तो उन कालांतरस्थायी पदार्थोके पल्ट रहे उस पदार्थके स्वरूप ही माने जायंगे और तिस कारण कोई भी शब्द जिस प्रकार प्रत्यभिज्ञान होनेसे अनित्य आत्मक सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार देवदत्त, जिनदत्त, आकाश आदिक भी प्रत्यभिज्ञायमान हेतुसे नित्य, अनित्य आत्मक सिद्ध हो जाओ । इस प्रकार तो मीमांसकोंका प्रत्यमिजायमानत्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास कह दिया गया समझना चाहिये । वस्तुतः विचारा जाय तो रसोई घरमें व्याप्ति ग्रहण किये जा चुके धुएंके सादृश्यसे पर्वतीय धूमकरके अग्निकी प्रतिपत्ति कर ली जाती है। उसी प्रकार सदृश शब्दोंसे उनके वाच्य अर्थाका. शाब्दबोध कर लिया जाता है। शब्द सर्व अनित्य है।
दर्शनस्य परार्थत्वादित्यपि परदर्शितः ॥ ६०॥ विरुद्धो हेतुरित्येवं शद्वैकत्वप्रसाधने ।
मीमांसकोंने. यह कहा था कि उपाध्यायके कहे गये शब्दोंको शिष्य सुन रहा है। वाच्य अर्थका बोध करानेके लिये बोले गये शब्द तो दूसरों के हितार्थ ही होते हैं। संकेतकालका शब्द ही व्यवहारकालमें बना रहेगा। तभी संकेत अनुसार शाब्दबोध करासकता है । अन्यथा संकेत ग्रहण किये गये शब्दसे न्यारे शब्दको सुनकर तो भ्रान्तहान उत्पन्न हो जायगा । इस प्रकार शब्दस्वरूप दर्शनका परार्थपना हो जानेसे शब्दका एकपना बढिया साधनेमें दिया गया। इस प्रकार " दर्शनस्य परार्थत्व " यह दूसरोंका दिखलाया गया हेतु मी विरुद्धहेत्वाभास है । क्योंकि शब्दके सादृश्यको लेकर वाक्यका अर्थबोध किया जा सकता है। सर्वथा नित्यपन इस अमीष्ट साध्यसे विरुद्ध हो रहे कथंचित् नित्य, अनित्यनपनके साथ व्याप्ति रखनेवाला उक्त हेतु है।
ततोऽकृतकता सिद्धरभावामयशक्तितः ॥ ३१॥ वेदस्य प्रथमोध्येता कति मतिपूर्वतः । ..