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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
स्मृतिलिंगविशेषाचेचेषां तत्र प्रसाध्यते ॥ ५२ ॥
कवीनां किं न काव्येषु पूर्वाधीतेषु सान्वया । ___ यदि मीमांसक यों कहें कि वैदिक शब्दों और अोंकी तो उन ब्रह्मा, मनु, आदिको विशेष रूपसे स्मृति होती है । अतः उत्तरजन्ममें विशेष सम्वेदन होनेके कारण उन मनु आदिकोंके उन वेदोंमें विशेष स्मृतिस्वरूप ज्ञापकलिंगसे पूर्वजन्मका अध्ययन प्रकृष्ट रूपसे अनुमान द्वारा साथ दिया जाता है। किन्तु कवियोंको विशेषस्मृति नहीं होनेके कारण अपने बनाये गये गीत, कविता, आदिका पूर्वजन्मोंमें अध्ययन करना नहीं साध्य किया जासकता है। इस प्रकार कहनेपर तो हम कहेंगे कि कवियोंकी भी पूर्वजन्मोंमें पढे हुये ही वर्तमानकालीन कायोंमें अन्वय सहित चली आरही, वह विशेष स्मृति क्यों नहीं मानली जाय ! कवि या भाटोंके बनाये हुये कवित्तोंमें भी पूर्व जन्मका अध्ययन कारण माना जा सकता है। तब तो वेदके समान वे छन्द मी अकृत्रिम हो जायंगे, बहुतसे वैदिकवाक्य भी तो गीतोंके समान है।
यदि ह्युत्पत्तिर्वर्णेषु पदेष्वर्थेष्वनेकथा ॥ ५३॥ वाक्येषु चेह कुर्वतः कवयः काव्यमीक्षिताः । किं न प्रजापतिर्वेदान कुर्वन्नेवं सतीक्षितः ॥ ५४॥ कश्चित्परीक्षकैलोंके सद्भिस्तद्देशकालगैः। तथा च श्रूयते सामगिरा सामानि रुमिराट् ॥ ५५॥ ऋचः कृता इति केयं वेदस्यापौरुषेयता ।
यदि मीमांसक यों कहें कि अकार, ककार आदि वर्णो में या सुबन्त, तिडन्त, पदोंमें अथवा परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा रख रहे पदोंके निरपेक्ष समुदायरूप वाक्योंमें इनके अोंके होते ते अनेक प्रकारसे उत्पत्ति होना देखा जाता है, और उन वर्ण, पद, वाक्योंकी जोड मिलाकर नवीन काव्यको करते हुये कविजन देखे गये हैं, अथवा इसी जन्ममें विशेष व्युत्पत्तिको प्राप्त कर कषि लोग नये नये कान्योंको बना देते हैं, यों काव्य, गीत आदिक पौरुषेय हैं, वेद ऐसे नहीं है। इस ढंगसे मीमांसकोंके कहनेपर हम जैनोंको कहना पडेगा कि इस प्रकार होनेपर तो ब्रह्मा भी वेदोंको कर रहा क्यों नहीं देखा गया कहा जाता है ! वेदोंके बनते समय उस देश. उस कालमें प्राप्त हुये रागद्वेषविहीन सज्जन लौकिक परीक्षकोंकरके वेदका कर्ता भी कोई पुरुष देखा गया है । वेद, वेदांग, श्रुति, स्मृति, पुराण, आदिक कोई भी अकृत्रिम नहीं है। और तिस प्रकार