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तत्त्वार्थश्लोकबार्तिके
स्वर्गेधीतान् स्वयं वेदाननुस्मृत्येह संभवी ॥ १८॥ ब्रह्माध्येता परेषां वाध्यापकश्चेद्यथायथं । सर्वेपि कवयः संतु तथाध्येतार एव च ॥ ४९ ॥ इत्यकृत्रिमता सर्वशास्त्राणां समुपागता।
मीमांसक कहते हैं कि स्वर्गमें जाकर स्वयं पढे जा चुके वेदोंको पीछे पीछे स्मरण कर यहां मर्त्यलोकमें ब्रह्मा वेदोंका अध्ययन करनेवाला संभव जाता है। और दूसरे मनु, यशवल्कि आदि ऋषियोंका यथायोग्य अध्यापक भी हो जाता है । आचार्य कहते हैं कि यदि मीमांसक यों कहेंगे तब तो तिसी प्रकार सम्पूर्ण कविजन भी स्वकृत काव्योंके पढनेवाले ही हो जाओ, अर्थात्-छोटे छोटे पुस्तक या श्लोकों अथवा पोंको बनानेवाले कवि लोगोंका भी ब्रह्माद्वारा अदृश्यरूपसे अध्यापन करना बन जाओ । इस प्रकार सम्पूर्ण छोटे बडे शास्त्रोंका अकृत्रिमपना अच्छे ढंगसे प्राप्त हो गया। छोटे, मोटे, छंद, मीत, कविता, गढनेवालोंकी तुकबन्दियां भी नित्य, अपौरुषेय, बन बैठेगी, जो कि मीमांसकोंके यहां मी नित्य नहीं मानी गयीं हैं। .
स्वयं जन्मांतराधीतमधीयामहि संपति ॥ ५० ॥ इति संवेदनाभावाचेषामध्येतृता न चेत् । पूर्वानुभूतपानादेस्तदहर्जातदारकाः॥५१॥ स्मतारः कथमेवं स्युस्तथा संवेदनाद्विना ।
गीत, छंद, प्राम्यगीत, छोटी, बडी, पुस्तकोंको बनानेवाले विद्वानोंको तो इस प्रकारका सम्वेदन नहीं होता है कि अन्य पूर्वजन्ममें पढे जा चुके गीत आदिकोंको हम इस वर्तमान जन्ममें पढ रहे हैं। अतः उन कवियों या शास्त्ररचयिताओंको अध्येतापन नहीं है। इस प्रकार मीमांसकोंके कहनेपर तो हम आपादन करेंगे कि क्योंजी, यों तो तैसे सम्वेदनके विना उसी दिनके उत्पन्न हुये बच्चे फिर पहिले जन्मोंमें इष्ट साधकपनेसे अनुभूत किये गये स्तन्यपान, अपने मुखद्वारकी ओर दूधको ले जाना, हाथोंसे पकडनेका अनुसन्धान रखना, आदि क्रियाओंके स्मरण करनेवाले भला कैसे हो सकेंगे ! अर्थात्-पूर्वजन्मोंमें किये जा चुके कृत्योंका अब सम्वेदन होय तभी उसके अनुसार इस जन्ममें क्रियायें की जाय । ऐसा कोई नियम नहीं है। गहरी चोटके कारण स्थान, समय आदिका स्मरण होनेपर ही पीछे फोडेमें पीडा होय और उनका स्मरण नहीं होनेपर न होय, ऐसा नियम बांवना प्रतीतिविरुद्ध है । अतः सम्वेदन किये विना भी उत्तर जन्मोंमें पूर्वजन्मकी स्मृतियां उद्भूत हो सकती है। ऐसी दशामें सभी पुस्तकें, गीत आदिक नित्य, अकृत्रिम हो जायंगे ।