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तत्त्वार्थलोकवार्तिके
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श्रुतमस्पष्टतर्कणमित्यपि मतिपूर्व नानार्थप्ररूपणं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमापेक्षामित्यवगंतव्यमन्यथा स्मृत्यादीनामस्पष्टाक्षज्ञानानां च श्रुतत्वप्रसंगात् सिद्धांतविरोधापत्तिरिति सक्तं मतिपूर्व श्रुतं।
पदार्थोका अविशद वेदन ( तर्कण ) करना श्रुतज्ञान है। यह लक्षण " मतिपूर्व" विशेषण लगा देनेपर तो ठीक बैठ जायगा, अन्यथा नहीं । तथा श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमविशेषकी अपेक्षासे उत्पन्न हुआ, और अविनाभावी अनेक अर्थान्तरोंका प्ररूपण करनेवाला ज्ञान श्रुतज्ञान है, यह समझ लेना चाहिये । अन्यथा यानी ऐसा नहीं माननेपर दूसरे प्रकारोंसे माना जायगा तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदिक तथा अन्य इन्द्रियोंसे जन्य अस्पष्ट मतिज्ञानोंको भी अस्पष्ट सम्वेदन होनेके कारण श्रुतपनेका प्रसंग आ जावेगा और ऐसा हो जानेसे जैनसिद्धान्तके साथ विरोध हो जानेकी आपत्ति खडी हो जाती है । इस कारण निःस्वार्थ उपकारी श्री उमाखामी महाराजने यह सूत्र बहुत ही अच्छा कहा है कि मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है । बहिरंग कारण मतिज्ञानसे और अन्तरंग कारण श्रुतज्ञानावरण क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ अविशदज्ञान श्रुतज्ञान है, यह इसका तात्पर्य है । अतः अतिव्याप्ति नहीं हो सकी।
तच्च । - और वह निर्दोष सिद्ध किया जा चुका श्रुतज्ञान तो:द्विभेदमंगबाह्यत्वादंगरूपत्वतः श्रुतम् । अनेकभेदमत्रैकं कालिकोत्कालिकादिकम् ॥ १५ ॥ द्वादशावस्थमंगात्मतदाचारादिभेदतः। प्रत्येकं भेदशद्वस्य संबंधादिति वाक्यभित् ॥ १६ ॥
" श्रुतं मतिपूर्व " इतने सूत्रार्द्धका व्याख्यान कर अब " घनेकद्वादशभेदम् " इस उत्तराईका भाष्य करते हैं कि वह श्रुतज्ञान अंगबाह्य स्वरूपसे और अंगरूपपनेसे दो भेदवाला है। इनमें पहिला एक तो कालिक, उत्कालिक, सामायिक, स्तव, आदिक अनेक भेदवाला है । तथा अंग खरूप वह श्रुतज्ञान तो आचार, सूत्रकृत, स्थान आदि भेदोंसे बारह अवस्था युक्त हो रहा है। या बारहभेदोंमें अवस्थित है। द्वन्द्वके अन्तमें पडे हुये भेदशद्वका प्रत्येकमें सम्बन्ध हो जानेसे दो भेद, अनेक भेद, और बारह मेद, इस प्रकार मिन्न भिन्न तीन वाक्य हो जाते हैं । जो कि भेद और उत्तरमेदोंके लिये उपयोगी है।
मुख्या ज्ञानात्मका भेदप्रभेदास्तस्य सूत्रिताः । शद्वात्मकाः पुनर्गौणाः श्रुतस्येति विभिद्यते ॥ १७ ॥