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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
इस प्रकार स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, धारणा आदिक मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान हो जाय, यह प्रसंग तो नहीं प्राप्त होता है । क्योंकि सूत्रकारने उस श्रुतज्ञानको मतिपूर्वकपनेका नियम किया है। किन्तु ये स्मृति आदि तो स्वयं मतिज्ञानरूप ही हैं। हां, यदि इन स्मरण आदिके पूर्वमें साक्षात् या परम्परासे मतिज्ञान वर्त गया होता, तब तो ये श्रुत कहे जा सकते थे । किन्तु ये स्मरण आदिक तो मूलमें ही स्वयं मतिज्ञान स्वरूप हैं । स्वयं देवदत्तका शरीर ही तो देवदत्तका पुत्र नहीं हो सकता है। श्रुतज्ञानावरण कर्मके विशेष क्षयोपशमकी अपेक्षा श्रुतज्ञानको होती है। श्रुतज्ञांनका वह अन्तरंग कारण है । जैसे कि मिथ्यादर्शनका अन्तरंग कारण पौगलिक मिथ्यात्वकर्म है और बहिरंग कारण मिथ्याज्ञान है | स्मृति आदिक तो अपने अन्तरंग कारण मतिज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमविशेषसे उत्पन्न होते हैं । अतः स्मृति आदिकोंमें श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशमस्वरूप अन्तरंग कारण के नहीं होने से श्रुतपना व्यवस्थित नहीं हो पाता है ।
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मतिर्हि बहिरंगं श्रुतस्य कारणं अंतरंगं तु श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमाविशेषः । स च स्मृत्यादेर्मतिविशेषस्य नास्तीति न श्रुतत्वम् ।
जिस कारणसे कि मतिज्ञान तो द्रव्यश्रुत या भावश्रुतका बहिरंग कारण है । श्रुतका अन्तरंग कारण 'श्रुतज्ञानावरण कर्मका विशेष क्षयोपशम है । क्षयोपशमकी विशेषता यही है कि उस कालमें प्रतिपक्षी कोकी उदीरणा नहीं हो सके । या श्रुतज्ञानीको नींद, भूक, रोग, चिंतायें आदि नहीं सता सकें, मन्दज्ञानियोंके मन्द क्षयोपशमकी अपेक्षा उसका क्षयोपशम बढिया होय, वैसा श्रुतज्ञानावरण कर्मका विशेष क्षयोपशम तो विशेषमतिज्ञान स्वरूप हो रहे स्मृति आदिकोंके नहीं है । इस कारण स्मृति आदिकोंको श्रुतपना नहीं प्राप्त हो पाता है । यह अतिव्याप्ति दोषका निवारण कर दिया गया ।
मतिपूर्वं ततो ज्ञेयं श्रुतमस्पष्टतर्कणम् ।
न तु सर्वमतिव्याप्तिप्रसंगादिष्टबाधनात् ॥ १४ ॥
जो कोई प्रतिवादी अविशदरूप तर्कणा करनेको श्रुतज्ञान कहते हैं, उनको भी उस अस्पष्ट तर्कण लक्षणसे वह मतिपूर्वक होता हुआ ही अस्पष्ट सम्वेदन श्रुत समझना चाहिये । किन्तु सभी अविशद सम्वेदनोंको श्रुत नहीं समझ लेना चाहिये । अन्यथा यानी मतिपूर्वक होनेवाले या इन्द्रियपूर्वक होनेवाले अथवा व्याप्तिज्ञानपूर्वक होनेवाले एवं अवग्रहपूर्वक हुये आदिक सभी अविशदज्ञानों को यदि श्रुत माना जायगा, तब तो रासन, स्पार्शन मतिज्ञान, अनुमान, ईहा, आदिक अस्पष्ट ज्ञानोंमें अतिव्याप्ति दोष हो जानेका प्रसंग होगा और ऐसा होनेसे इष्ट सिद्धान्तमें TET उपस्थित हो जायगी जो कि अभीष्ट नहीं है ।