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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके ammemommmmmmmm जिस ही प्रकार शब्द अपने अविनाभावी वाच्य अर्थका नियमसे निश्चय करा देता है, उसी प्रकार रूप, रस, आदिक भी अपने साथ अविनाभाव रखनेवाले दूसरे अर्थोकी प्रतीति करा देते हैं। इस प्रकार श्रोत्रमतिपूर्वक श्रुतज्ञानके समान ही चाक्षुष आदि मतिपूर्वक भी श्रुतज्ञान होते देखे जाते हैं। किसी विद्वान् रोगी, धनाढ्य, जितेन्द्रिय, व्यभिचारी, चोरके मुखको देखकर विज्ञ पुरुष उनको वैसा वैसा होनेका श्रुतज्ञान कर लेते हैं । कस्तूरी, हींगडा आदिको गन्धको सूंघकर उन द्रव्योंका या उनके प्रकर्ष अपकर्षका ज्ञान हो जाता है । बात यह है कि प्रत्यक्षज्ञान अविचारक है। सबसे बडा प्रत्यक्ष जो केवलज्ञान है, वह भी विचार नहीं कर सकता है । विचार करनेवाला ज्ञान श्रुतबान ही माना गया है। अतः रसना या घ्राण इन्द्रियोंसे केवल गन्ध, रसका ही शुद्ध ज्ञान होता है, जो कि सच पूंछो तो अवक्तव्य है। गन्ध है या रस है, इस प्रकारके विचार भी तो श्रुतज्ञान है। किन्तु क्या किया जाय, शिष्यको व्युत्पत्ति करानेके लिए अवक्तव्य पदार्थका भी शब्दद्वारा निरूपण करना पडता है । शिष्यके समझ जानेपर यह अवक्तव्य तत्त्व है, ऐसा समीचीन बोध करा दिया जाता है। भगवान् केवलज्ञानी भी सम्पूर्ण पदार्थीका प्रत्यक्ष कर अपनी दिव्यभाषासे श्रोताओंकी आत्माओंमें श्रुतज्ञान उपजा देते हैं । इसमें भी यही रहस्य समझ लेना । वस्तुतः तत्त्व तो अवाच्य है। हां, यों ही सुनते, समझते, तत्त्वके अन्तस्तलपर ज्ञानी पहुंच जाता है। क्या किया जाय, राजमार्ग यही है । यों कह देना तो प्रकृष्ट आचार्यको ही शोभता है कि " यत्परैः प्रतिपाद्योहं यत्परान् प्रतिपादये । उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पक: "। यहां यों कहना है कि यह कस्तूरीकी गन्ध है, यह नींबूका रस है, चूलेकी अग्निसे पजायेकी अग्नि अत्युष्ण है, यह मखमल या मलमल अच्छी है, दो रुपया या एक रुपया गजके मूल्यकी है, यह मुर्गेका शद्ध है, मोरका नहीं है, इत्यादि विचार सब श्रुतज्ञान हैं। मूर्ख, बधिर, अन्धे जीवोंके अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानोंसे अनेकानेक श्रुतज्ञान उपजते देखे जाते हैं । तिस कारण वह श्रुतज्ञान केवल श्रोत्रमतिपूर्वक ही है, यह नियम करना श्रेष्ठ नहीं है । अन्यथा अन्धे, बहिरे, पण्डितोंके श्रुतबानोंमें या अन्य भी जीवोंके श्रुतज्ञानोंमें लक्षण नहीं घटनेसे अव्याप्ति हो जायगी सो नहीं हो सकती है । क्योंकि सार्व सूत्रकार महाराजने सामान्य मतिज्ञानोंके संग्रहार्थ “ मतिपूर्व " ऐसा सामान्यकरके मति यह वचन कहा है, जो कि सभी मतिज्ञानोंको श्रुतको निमित्त हो जा सकना कह रहा है। न स्मृत्यादि मतिज्ञानं श्रुतमेव प्रसज्यते । मतिपूर्वत्वनियमावस्यास्य तु मतित्वतः ॥ १२ ॥ श्रुतज्ञानावृतिच्छेदविशेषापेक्षणस्य च । स्मृत्यादिष्वंतरंगस्याभावान श्रुततास्थितिः ॥ १३॥
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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