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तत्वार्थचिन्तामणिः
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ज्ञानस्वरूप श्रुत ही साक्षात् अथवा परम्पराकरके पूर्ववर्ती हो रहे मतिज्ञानसे उत्पन्न होता है, ऐसा नियम किया जा रहा है । किन्तु फिर सम्पूर्ण शब्द आत्मक श्रुत भी मतिपूर्वक है, यह नियम नहीं किया जा रहा है, जिससे कि उन सर्वज्ञ वचनोंको केवलज्ञानपूर्वकपना होनेके कारण विरोध दोष आ जाय । अर्थात् — द्रव्यश्रुतके पूर्व में केवलज्ञान के हो जानेसे श्रुतज्ञानके मतिपूर्वकपनका पूर्वापर में कोई विरोध नहीं आता है । गणधर देव, भरतचक्रवर्ती, समवसरण में बैठे हुये अन्य मुनि, श्रावक, इन्द्र, सिंह, आदिकोंको उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान भी केवलज्ञानपूर्वक नहीं है । किन्तु उस श्रुतज्ञानके निमित्तकारण हुये सर्वज्ञ उक्त शब्दोंको विषय करनेवाले कर्ण इन्द्रियजन्य विशिष्ट अतिशयवाले मतिज्ञानको अव्यवहित पूर्ववर्त्ती मानकर उन गणधर आदिकोंके वह श्रुतज्ञान उत्पन्न हो रहा है । इस कारण अन्याप्ति आदि दोषोंसे रहित यह श्रुतज्ञानका लक्षणसूत्र निर्दोष है ।
मतिसामान्यनिर्देशान्न श्रोत्रमतिपूर्वकं ।
श्रुतं नियम्यतेऽशेषमतिपूर्वस्य वीक्षणात् ॥ १० ॥ श्रुत्वा शङ्कं यथा तस्मात्तदर्थं लक्षयेदयं । तथोपलभ्य रूपादीनथं तनांतरीयकम् ॥ ११ ॥
सूत्रकारने मतिपूर्व ऐसा निर्देश कहकर सामान्यरूपसे सम्पूर्ण मतिज्ञानोंका संग्रह कर लिया है । अतः केवल श्रोत्रइन्द्रियजन्य मतिज्ञानको ही पूर्ववर्त्ती मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होय ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है। कारण कि रूपका चाक्षुषज्ञान, रस या रसवान्का रासन ज्ञान अथवा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदिक सभी प्रकारके मतिज्ञानस्वरूप पूर्ववर्ती निमित्तोंसे श्रुतज्ञानोंकी उत्पत्ति होती हुयी देखी जाती है । यह श्रुतज्ञानी जीव या श्रुतशब्दप्रयोक्ता वक्ता जिस प्रकार शब्दको सुनकर उससे उसके वाच्य अर्थको लक्षित कर देता है । तिस ही प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियोंद्वारा रूप, स्पर्श आदि अर्थोको मतिज्ञानसे जानकर उन अर्थोके अविनाभावी अर्था न्तरोंकी मी श्रुतज्ञानद्वारा लक्षणा कर लेता है। अर्थात् - कर्ण इन्द्रियके समान अन्य पांचों इन्द्रियों से भी मतिज्ञान होकर उसको पूर्ववर्ती निमित्त कारण हो जानेपर द्रव्यश्रुत या भावश्रुत उपज्ञ जाते हैं। हां, मोक्ष, मोक्षकारण, और संसार, संसारकारण, तत्त्वों का विशेषरूपसे विवेचन तो वचन या शास्त्रों द्वारा होता है । अतः श्रुतकी बहुभाग प्रवृत्ति श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक श्रतज्ञानमें हो रही है । एतावता अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले श्रुतोंका निराकरण नहीं किया जा सकता है।
यथा हि शद्धः स्ववाच्यमविनाभाविनं प्रत्यापयति तथा रूपादयोपि स्वाविनाभाविनमर्थं प्रत्यापर्यंतीति श्रोत्रमतिपूर्वकमिव श्रुतज्ञानमीक्ष्यते । ततो न श्रोत्रमतिपूर्वकमेव तदिति नियमः श्रेयान् मतिसामान्यवचनात् ।