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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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इस सूत्र में श्रुतज्ञानके कड़े गये भेदप्रभेद मुख्य रूपसे तो ज्ञानस्वरूप सूचितं किये गये हैं । हां, फिर श्रुतके शद्व - आत्मक भेद तो गौस होते हुये यहां सूत्रमें कहे गये हैं। इस प्रकार श्रुतके मुख्यरूप से ज्ञानस्वरूप और गौणरूप से शद्वस्वरूप विशेष भेद करलेना चाहिये । वस्तुतः जैन सिद्धान्तमें ज्ञानको ही प्रमाण इष्ट किया है। किन्तु ज्ञानके कारणोंमें प्रधान कारण शब्द है । जैसे कि शरीर के अवयवोंमें नेत्र प्रधान हैं। मोक्ष या तत्त्वज्ञानके उपयोगी अथवा विशिष्ट विद्वत्ता सम्पादनार्थ शब्द ही आवश्यक पडते हैं । अतः " तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात् " शिष्य के ज्ञानका कारण और वक्ता के ज्ञानका कार्य होनेसे उस ज्ञानका प्रतिपादक वचन भी उपचारसे प्रमाण कह दिया जाता है । वैसे ही यहां शद्वको भी श्रुतका गौणरूपसे भेद, प्रभेद, मान लिया गया है।
तत्र श्रुतज्ञानस्य मतिपूर्वकत्वेपि सर्वेषां विप्रतिपत्तिमुपदर्शयति ।
तिस प्रकरण में श्रुतज्ञानका मतिपूर्वकपना सम्पूर्ण वादियोंके यहां सिद्ध हो चुकनेपर भी किसी किसीके यहां विवादग्रस्त हो रहे इस विषयको ग्रन्थकार दिखलाते हैं । अथवा श्रुतज्ञानके मतिपूर्वकपने में सभी वादियोंका विवाद नहीं है, इसको प्रकट करे देते हैं। " अविप्रतिपत्ति " पाठ अच्छा है।
शद्वज्ञानस्य सर्वेपि मतिपूर्वत्वमादृताः ।
वादिनः श्रोत्रविज्ञानाभावे तस्यासमुद्भवात् ॥ १८ ॥
सम्पूर्ण भी वादी विद्वान् शद्वजन्य वाध्य अर्थज्ञानरूप श्रुतज्ञानका मतिपूर्वकपना आदर सहित मान चुके हैं। क्योंकि कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञानके नहीं होनेपर उस शाद्वबोधकी भले प्रकार उत्पत्ति नहीं हो पाती है। शदश्रवण, संकेतस्मरण, ये सभी वाच्यार्थ ज्ञानों में कारण पड जाते हैं । यों व्यतिरेकवलसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञानका कार्यकारणभाव सत्र जाना प्रायः सबको अभीष्ट है । किन्तु जैनोंके व्यापक पूर्वापरीभावसे यह वादी विद्वानोंके द्वारा अभीष्ट किया गया कार्यकारणभाव संकुचित है । यह ध्यान में रखना । मायायुक्त चंचल जगत् में न जाने किस किस ढंग अनेकरूप धरनेवाले पण्डितजन पैंतरे बदलते रहते हैं । किन्तु वीतरागकी उपासना करनेवाले ठोस विद्वान् तो अपने न्यायमार्गपर ही आरूढ रहकर त्रिलोक, त्रिकालमें, अबाधित हो रहे तत्वोंका प्रतिपादन करते रहते हैं । अन्तमें सत्यकी ही विजय होगी ।
भवतु नाम श्रुतज्ञानं मतिपूर्वकं याज्ञिकानामपि तत्र विप्रतिपत्तेः । " शद्बादुदेति यज् ज्ञानप्रमत्यक्षेऽपि वस्तुनि । श्राद्धं तदिति मन्यंते प्रमाणांतरवादिनः " इति वचनात्, शद्वात्मकं तु श्रुतं वेदवाक्यं न मतिपूर्वकं तस्य नित्यत्वादिति मन्यमानं प्रत्याह ।
मीमांसक ऐसा मान रहे हैं कि वह श्रुतज्ञान ( लौकिक ) भले ही मतिज्ञानपूर्वक रहो कोई क्षति नहीं है। ज्योतिष्टोम, आदि यज्ञोंकी उपासना करनेवाले हम मीमांसकोंके यहां भी उसमें कोई
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