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तत्त्वार्यश्लोकवार्तिके
अप्राप्यकारी चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होनेका उपसंहार करदिया गया है। यहांतक मतिज्ञानके भेदप्रभेदोंका वर्णन युक्तियोंसे साधा है । महान् आचार्य श्री विद्यानन्द स्वामीकी अगाध विद्वत्ता अर्चनीय है । लोकप्रसिद्ध विज्ञान द्वारा आगमगम्य पदार्थोका हस्तामलकवत् विस्तृत ज्ञान करा दिया है । यह उसीका आशीर्वादजन्य फल है।
ज्ञानं ह्यनात्मचिदचित्सहकार्यधीनानायत्तवृत्तमपकर्षमियात्प्रकर्ष । चापाप्य विज्जनकपौद्गलिकेऽक्षिचित्ते न व्यञ्जना स्फुरदवग्रहकारणे स्तः ॥१॥
यहांतक दो परोक्ष ज्ञानोंमेंसे मतिज्ञानका वर्णन कर दूसरे क्रमप्राप्त श्रुतज्ञानका निरूपण करनेके लिये श्रीउमास्वामी महाराज अग्रिमसूत्रको स्वकीय उपक्षी आत्मासे उतारकर ज्ञानसुधापिपासु भव्यजीवोंके हृदयमन्दिरमें विराजमान करते हैं। .
श्रुतं मतिपूर्व यनेकद्वादशभेदम् ॥ २० ॥
श्रुतज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ अर्थसे अर्थान्तरका ज्ञान श्रुतज्ञान है । यह श्रुतज्ञानका लक्षण पारिभाषिक श्रुतशब्दसे ही निकल पडता है । वह श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है, अर्थात्-श्रुतज्ञानका निमित्तकारण मतिज्ञान है । श्रुतज्ञानके मूलमें दो भेद हैं । एक अंगबाह्य दूसरा अंगप्रविष्ट भेद है । सर्वज्ञके साक्षात् शिष्य गणधर या प्रशिष्य अन्य आचार्योद्वारा अल्पज्ञ जीवोंके अनुग्रहार्थ स्मृत रखा गया स्वल्पवचन-विन्यास तो अंगबाह्य है। और बुद्धयतिशय ऋद्धिसे युक्त हो रहे गणधर महाराज द्वारा पीछे पीछे सर्वज्ञोक्त स्मृत की गयी महती प्रन्थरचना अंगप्रविष्ट है । तिनमें कालिक, उत्कालिक, आदि भेदोंकरके अंगबाह्य अनेक प्रकारका है । अंगप्रविष्ट तो आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकाध्ययन, अन्तकृद्दश, अनुत्तरोपपादिकदश, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र, दृष्टिवाद, इन भेदोंसे बारह प्रकारका है। अथवा सौलइ सौ चौतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सौ अठासी १६३४८३०७८८८ अपुनरुक्त अक्षरोंका सम्पूर्ण श्रुतके एक कम एकहि प्रमाण अक्षरोंमें भाग देनेसे एक सौ बारह करोड तिगसी लाख अठावन हजार पांच ११२८३५८००५ बन गये पद तो अंगप्रविष्टके हैं । और शेष बच रहे आठ करोड एक लाख आठ हजार एक सौ पिचत्तर अक्षरोंका अंगबाह्य है।
किमर्थमिदमुपदिष्टं मतिज्ञानप्ररूपणानंतरमित्याह ।
मतिज्ञानका बढिया निरूपण करनेके अव्यवहित उत्तर ही इस सूत्रका श्री उमास्वामी महाराजने किस प्रयोजनके लिये उपदेश किया है । इस प्रकार समीचीन जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज समाधान कहते हैं कि-- .