________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
५९५
3mmmmmmmmmmmmmmmmmmunirman
चलकर रुक जाता है । कभी कमी तो पहिले उत्पन्न देशके मूलशर नष्ट हो जाते हैं । और दूर देशोंके नैमित्तिक शब्द सुनाई पडते रहते हैं। नैमित्तिक भाव अनेक प्रकारके होते हैं। कच्ची इंटमें अग्निके निमित्तसे उत्पन्न होगयी रक्तिमा पुनः अमिके पृथक् हो जानेपर भी सैकडों वर्षतक ठहरती है। हां, जपाकुसुमके सनिधानसे हुयी स्फटिकमें लाली तो निमित्तके दूर कर देनेपर शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, तथा मन्दकषायी मद्रजीवके सद्गुरु महाराजका उपदेश कुछ अधिक कालतक ठहरता है । कोई कोई नैमित्तिकभाव निमित्तके हट जानेपर शीघ्र या देरमें नष्ट होते हैं। अपने अपने अनेक स्वभावोंके अनुसार पदार्थोकी विचित्र परिणतियां हैं। दीपक या सूर्यप्रकाशके समान शब्द भी निमित्तके पृथक्भूत कर देनेपर अधिककालतक नहीं ठहर पाता है। हां, कुछ समयोंतक ठहर जाता है। सूर्यके छिप जानेपर या दीपकके बुझ जानेपर भी उनका प्रकाश कुछ क्षणों पीछे नष्ट होता है । वस्तुतः विचारा जाय तो प्रकाशका निमित्तकारण ही दीप है। उपादान कारण तो सब ओर भरी हुई प्रकाशने योग्य पुद्गलवर्गणायें हैं । वे निमित्तके नष्ट हो जानेपर भी उपादानकी तैसी परिणति हो जानेसे कुछ देरतक प्रकाशित रह सकती हैं। वक्ताके मुखदेशसे उत्पन्न हुआ, वही शब्द श्रोताके कानतक आवे यह निवम नहीं । यहां भी मध्यवर्ती शब्दपरिणतियोग्य वर्गणायें ही शब्दोंकी उपादान कारण हैं। यदि लम्बा चौडा एक अवयवी शब्द पुद्गल बन गया है तब तो उसी शब्दका सैकडों मनुष्योंको श्रवण हो सकता है। किन्तु यदि छोटे छोटे अनेक शद्ध हुए हैं तो श्रोताको सदृश शब्दोंका श्रवण होगा । यही दशा अनक्षर शद्वोंकी उत्पत्तिमें लगा लेना । वीन, हरमोनियमके पातों से होकर निकली हुयी ध्वनिवायु ही निषाद, ऋषम, गांधार, षडज, पञ्चम, धैवत, मध्यम, स्वरोंरूप परिणमजाती है । प्रतिध्वनियोंमें पौद्गलिक शब्दोंका आघात होकर वैसी ही परावर्तित परिणतियां करना भी अभीष्ट है । " देवदत्त गामानय " इस वाक्यके पूर्व पूर्व वर्णका नाश होकर संस्कार युक्त हो रहे उत्तरोत्तर वर्णो के श्रावणप्रत्यक्षोंसे अन्तमें पूर्ण शाबोध हो जाता है । ज्ञान भी एक विलक्षण प्रकारका अवयवी है । इसका प्रकरण लम्बा है। फिर किसी अवसर पर ग्रन्थकारद्वारा स्वयं वखान किया जायगा। गन्धके सूक्ष्मद्रव्योंका समाधान पौद्गलिकशद्वोंपर न्यायविहित है। पोद्गलिक शब्दका आंखोंसे दीख जाना, वृक्षसे टकराना, कान भरजाना, एक श्रोताके कानमें घुस जानेपर दूसरे श्रोताओंको सुनाई नहीं पडना, आदि उलाहनोंका उत्तर वही गन्ध परमाणुओंवाला है। छिद्र नहीं करते हुये भी भीति से सूक्ष्मस्वमाव होनेके कारण शब्द बाहर निकल आते हैं, जैसे कि मिट्टीके घडेमेंसे पानी निकलकर बाहर घडा गीला हो जाता है। कांचमेंसे घाम निकल आती है। इस प्रकरणको विस्तारके साथ लिखा गया है। सूक्ष्मपुद्गलोंके अधीन होता हुआ शब्द सुना जा रहा है । मीमांसकोंका शब्दको अमूर्त और सर्वगत कहना प्रमाणोंसे बाधित है। अतः निःसंशय होकर शब्दको पौद्गलिक साधते हुये आचार्यने श्रोत्रका प्राप्यकारित्व पुष्ट किया है । तथा