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तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिके
वस्तुकी व्यवस्था करनी चाहिये । अदृष्टकी विचित्रतासे ज्ञानकी विचित्रता है । सम्पूर्ण पदार्थ जगत्में विद्यमान हैं, किन्तु पुण्य, पापका ठाठ सर्वत्र फैल रहा है । प्राप्ति, अप्राप्ति, अकिंचित्कर हैं । सेठकी अंटीमें भले ही एक रुपया भी नहीं है और रोकडियाके पास लाखों रुपये हैं। एतावता क्या पच्चीस रुपये मासिकके मृत्य रोकडियाको मुद्रासम्बन्ध हो जानेसे ही लक्षाधिपति कहा जा सकता है ? नहीं । इसके आगे भौतिकत्व, करणत्व आदि हेतुओंसे भी वैशेषिकोंकी अभीष्टसिद्धि नहीं हो सकी है । अयस्कांत चुम्बक अप्राप्त लोहेको दूरसे खींच लेता है । हर्ड, नली, सूर्यकिरणें आदि दृष्टान्तोंसे अप्राप्यकारीपन सिद्ध नहीं होता है। मंत्र तंत्र अप्राप्त होकर ही उच्चाटन, वशीकरण आदि कार्योको करते हैं । उद्योतकर चन्द्रमामें जाड्यविशेष है । कविलोक ड और ल में कदाचित् अभेद मान लेते हैं । चक्षु और मनसे व्यंजनावग्रह नहीं होता है । चक्षुके समान श्रोत्रको अप्राप्यकारी कहना असत्य है, अन्यथा घाणको भी अप्राप्यकारित्व बन बैठेगा । गन्धद्रव्यके सूक्ष्म अवयव निकलकर या उसके निमित्तसे बहिःप्रदेशोंमें फैले हुये पुद्गल स्कन्धोंका गन्धिल परिणाम हो जानेपर सम्बन्धित हुये पदार्थको ही नासिका जानती है । उसी प्रकार पौद्गलिक शब्दको प्राप्त कर ही श्रोत्र इन्द्रिय सुनती है । यहां शब्दको पौद्गलिकत्व सिद्ध करनेपर मीमांसक और वैशेषिकोंने बडी उछल कूद मचाकर शब्दके पौद्गलिकत्वका निरास करनेमें मारी मुंहकी खायी है। कुटी आदिकसे प्रतिघात आदि कटाक्षोंका गन्ध अणुओंकरके निराकरण कर दिया जाता है। मीमांसकोंके यहां माने गये शब्दके व्यापकपन और अमूर्तपनका पूर्वप्रकरणोंमें प्रत्याख्यान किया जा चुका है। महत्त्व, हूसत्व, आदिक धर्म तो गन्ध द्रव्यके समान शब्दमें भी समझ लेना । प्रायः सम्पूर्ण पदार्थ अपने निकटवर्ती या दूरवती योग्य पदार्थोपर अपने नैमित्तिकमाव उत्पन्न करा देते हैं । शब्दकी उत्पाद प्रक्रिया भी वैसी ही समझना चाहिये । शद्बपरिणतियोग्य पुद्गलवर्गणाऐं लोकमें मरी हुयीं हैं । जहां नहीं होगी वहां नगाडा बजानेपर भी शब्द नहीं बनेगा। वक्ताके कण्ठ, तालु, आदिमें उचित व्यापार कर देनेसे अकार, इकार, आदि वर्ण बन जाते हैं । अथवा मृदंगपर हाथका अमिघात (संयोगविशेष) करनेसे वहां देशमें अनक्षरात्मक शब्द उत्पन्न हो जाता है। वे शब्द कुछ क्षणोंतक ठहरकर नष्ट हो जाते हैं । सरोवरके बीचमें डाल दिया गया डेल जैसे चारो ओर गोल लहरें जलमें बनाता है, वैसे ही वक्ता, मृदंग, आदिका शब्द भी दसों ओर अखण्ड अवयवीरूप लम्बे चौडे पौद्गलिक शब्दको रचता है । यदि दसों दिशाओंमें दश शद्वोंको बनाता होता तो हमें पहिलेसे ही दस शब्द सुनाई पडते, किन्तु ऐसा नहीं है। एक अखण्ड अवयवी शद्वपुद्गलके किसी भी भागका कर्ण इन्द्रियसे सम्बन्ध हो जानेपर पूरे शद्वको हम सुन लेते हैं, जैसे कि घडा या पर्वतके एक उरले भागको देख लेनेपर अखण्ड अवयवी घट या पर्वतका एक चाक्षुषप्रत्यक्ष हो जाता है। यह शद्वोंकी नैमित्तिकधारा बहुत दूरतक फैली हुयीं शद्ध वर्गणाओंको तमतरमावसे शब्दमय बनाती जाती है। अपनी नैमितिक-कारणरूप योग्यताके अनुसार शवधाराका बनना आगे