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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
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आदिकमें तेजो
कर या प्रत्यक्ष प्रसिद्धपदार्थकी अवज्ञा कर अपनी पक्षपुष्टिके लिये अप्रामाणिक पदार्थोंकी कल्पना कर बैठते हैं । वस्तुव्यवस्था भले ही नष्ट भ्रष्ट हो जाय, उनका मनमानी आग्रह सधना चाहिये । नैयायिकोंद्वारा मानी गयी स्फटिककी नाश, उत्पादप्रक्रियापर परीक्षक विद्वानोंको हंसी आती है । क्योंकि स्फटिक बडी देरतक वहका वही देखि रहा है । यहांका विचार चमत्कारयुक्त है । जब कि भाव, अभाव दोनोंसे वस्तु गुम्फित हो रही है तो अन्तरालसहित उत्पाद विनाश दीखने चाहिये । किन्तु स्फटिक, काच, अभ्रक आदिमें ऐसा होता नहीं है । उन अविकठोंके सदा अव्यवहित दर्शन स्पर्शन होते रहते हैं । बाह्यइन्द्रियत्व हेतुके बाह्य पदसे मनका व्यवच्छेद भी क्यों किया जाता है ? मन भी तो दुःख आदिको संयुक्तसमवाय आदि सम्बन्धसे प्राप्त होकर ही जानता है । अतीत, अनागत दूरवर्ती पदार्थोंके साथ भी कालिक, दैशिक परम्परासम्बन्ध बन रहे हैं। ऐसी दशामें वैशेषिक को इन्द्रियत्व हेतु ही देना चाहिये था। मनुष्य, स्त्री आदिके नयनोंकी किरणें दीखती भी तो नहीं हैं । अदृश्य माननेपर तो रात्रिमें सूर्यकिरणें भी तिरोभूत होती हुयीं मान ली जांय, मनुष्य के शिरपर भी सींगों का सद्भाव गढ लिया जाय । तैजसत्व हेतु भी चक्षुकी किरणोंको सिद्ध नहीं कर सकता है। अनेक दोष आते हैं। अतैजस होकर भी सूर्य या चन्द्रमाकी किरणें प्रतीत हो रही हैं । दूसरे तैजसगूढ अंगारकी किरणें नहीं दीख रही हैं । चक्षुके तैजसत्वको साधनेवाले हेतु भी प्रशस्त नहीं हैं । चन्द्र माणिक्य आदिसे व्यभिचार होता है। अंजन, घृत बादाम तेल द्रव्यकी सम्भावना करना अनीति है । चन्द्रः उद्योत तो तैजस कथमपि नहीं है मूलमें अनुष्ण (शीतल) है। उसकी प्रभा उष्ण है । मनुष्यकी आंखों में उष्णस्पर्श नहीं दीखता है, दोनोंका अनुद्भूत होना किसी भी तेजोद्रव्यमें वैशेषिकोंने नहीं माना है । यों थोडी, बहुत, उष्णता या चमक सभी जीवित शरीरोंमें पायी जाती है। सुवर्ण भी पार्थिव है । क्योंकि वह भारी है, पीला है । स्पर्शन या रसना इन्द्रियके प्राप्यकारित्वको देखकर चक्षुमें भी वही सिद्धान्त करना अनुचित है । मनुष्यका मुख तो प्राप्त कवल ( कौर) को पकडता है । किन्तु अजगर सांपका मुख दूरसे खेंचकर मक्ष्यको पकड लेता है । मनुष्य भी अधिक प्यास लगनेपर प्रयत्न करके अधिक पानीको मुखद्वारा शीघ्र खींच लेता है । चक्षुकी छोटी किरणें मान भी ली जांय तो भी महान् पर्वत, नदी आदिको प्राप्त नहीं कर सकती हैं। यहां धतूरेके फूल समान किरणोंके फैलने या एक पर्वतको निरंश, अवयवी, मानलेनेका निराकरण कर शाखा और चंद्रमा के युगपत् ज्ञान हो जानेसे चक्षुका अप्राप्यकारित्व पुष्ट किया गया है। छोटेसे द्रव्यकी किरणें अपने द्रव्यदेशमें ही रह सकती हैं। बाहर नहीं फैल जायंगी । प्रकाण्ड विद्वान्की विद्वत्ता उसकी आत्मा में ही ठहरेगी। हां, उसके निमित्तसे विद्वत्ताका प्रभाव पडकर नैमित्तिक भाव तो अन्यदेशीय पदार्थों में भी उपज सकते हैं, जो कि अन्य पदार्थोंके ही उपादेय परिणाम कहे जायेंगे । अनुमान और आगमप्रमाणसे मी चक्षुका अप्राप्त अर्थ प्रकाशत्व साधा गया है । प्रतीतिके अनुसार
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सूर्यविमान भी
और भास्वररूप
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