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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
किं निमित्तं श्रुतज्ञानं किं भेदं किं प्रभेदकम् । परोक्षमिति निर्णेतुं श्रुतमित्यादि सूत्रितम् ॥ १ ॥
उस परोक्ष श्रुतज्ञानका निमित्त कारण क्या है ? और उस श्रुतज्ञानके भेद कौन और कितने ? तथा परोक्ष श्रुतज्ञानके भेदोंके भी उत्तरभेद कितने और कौन कौन हैं ? इस प्रकारकी जिज्ञासाओंका निर्णय करने के लिये “ श्रुतं मतिपूर्वं यनेकद्वादशभेदम् " यह सूत्र श्री उमास्वामीद्वारा निरूपण किया गया है ।
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किं निमित्तं श्रुतज्ञानं नित्यशद्धनिमित्तमन्यनिमित्तं चेति शंकामपनुदति मतिपूर्वकमिति वचनात् । किं भेदं तत् ? षड्भेदं द्विभेदमित्यभेदं वेति संशयं सहस्रप्रभेदं द्वादशप्रभेदमनेकभेदं वेति चारेकामपाकरोति यनेकद्वादशभेदमिति वचनात् ।
किस पदार्थको निमित्त कारण मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है ? इस प्रकार प्रश्न होनेपर कोई मीमांसक विद्वान् यदि इसका यों उत्तर करें कि अपौरुषेय वेदके नित्यशब्दोंको निमित्त पाकर अल्पज्ञ जीवके आगमज्ञान होता है और किसी विद्वान्के यहां यह उत्तर सम्भावनीय होय कि अन्य पुण्यविशेष या भावनाज्ञान अथवा आशीर्वाद, ईश्वर आदिको निमित्तकारण मानकर शास्त्रज्ञान हो जाता है । इस प्रकारकी शंकाका " मतिपूर्व " इस वचनसे निराकरण हो जाता है । अर्थात्मतिज्ञानस्वरूप निमित्तसे श्रुतज्ञान उपजता है । नित्यशसे या पुण्यकर्म आदिसे नैमित्तिक श्रुत नहीं बनता है । सूत्रके उत्तरार्द्धका फल यह है कि उस श्रुतज्ञानके कितने भेद हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कतिपय विद्वान् य संशय में पडे हुये हैं कि श्रुतज्ञानके छह भेद हैं। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद, धनुर्वेद, आयुर्वेद, हैं । या शिक्षा, व्याकरण, कल्प, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष ये वेदके छह अंग हैं। तीन वेद और तीन उपवेद होकर भी छह भेद हो जाते हैं तथा श्रुतज्ञानके ब्राह्मण भाग और मंत्रभाग ये दो भेद हैं अथवा अद्वैतवादियों के अनुसार वेदका कोई भेद नहीं है । एक ही प्रकारका ब्रह्मप्रतिपादक वेद है । औपाधिक मेद मूलपदार्थको भिन्न प्रकारका नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार के संशयका " द्यनेकद्वादशभेदम् " के द्वि इस वचनसे निवारण हो जाता है । अर्थात् - वह श्रुतज्ञान मूलमें दो भेदवाला है। उसके छह आदि भेद नहीं हैं । तथा तीसरी बात यह है कि कोई कोई मीमांसक वेदोंकी सहस्रशाखायें मानकर वेदके उत्तर प्रभेद हजार मानते हैं । " सहस्रशाखो वेदः " । अन्य कोई व्याकरण, न्याय, साहित्य, सिद्धान्त, इतिहास, ज्योतिष, मंत्र, आदि प्रभेदोंसे आगमके बारह उत्तरभेद मानते हैं । किन्हीं विद्वानोंने अन्य भी अनेक उत्तर भेद स्वीकार किये हैं । कोई ऐसे भी हैं, जो उत्तरभेदोंको मानते ही नहीं हैं। इस प्रकारकी शंकाका निरास तो " यनेकद्वादशभेदम् " इस सूत्रार्द्धके " अनेकद्वादशभेदम् " वचनसे हो जाता है। अर्थात् श्रुतज्ञानके दो मेदोंके उत्तरभेद अनेक और बारह हैं, न्यून अधिक नहीं हैं ।
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