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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक
__तर्हि पुरुषप्रयत्ननिरपेक्षा यथादित्यरश्मयः प्राप्य भूगतं तोयं तमेव पति नयंति तथायस्कांतपरमाणवोपीत्यभिमन्यमानं प्रत्याह ।
पुनः वैशेषिक चुम्बकपाषाणस्वरूप व्यभिचारस्थलको बिगाडनेका निंद्य प्रयत्न करते हैं कि उक्त प्रकारसे नहीं सही, तब तो यों सही कि सूर्यको किरणे पुरुषके प्रयत्नकी नहीं अपेक्षा रखती हुयीं ही जिस प्रकार पृथ्वीमें प्राप्त हो रहे जलको संपूर्णकर उस सूर्यके प्रति ही ले जाती ( मगा लेती ) हैं, उसी प्रकार अयस्कांतकी परमाणुयें भी प्राप्त होकर लोहको अपने निकट खेंच लेती हैं। इस प्रकार अभिमानपूर्वक स्वीकार कर रहे प्रतिवादीके प्रति आचार्य महाराज स्पष्ट उत्तर कहते हैं, सो सुनो।
सूर्यांशवो नयंत्यंभः प्राप्य तत्सूर्यमंडलं । चित्रभानुत्विषो नास्तमिति खेच्छोपकल्पितम् ॥ ८७ ॥
सूर्यकी किरणें पृथ्वीपर नीचे उतरकर जलको प्राप्त होकर फिर उस सम्बन्धित जलको सूर्यमंडलके प्रति प्राप्त करा देती हैं, ऐसा तुम मानते हो । किन्तु वे सूर्यकिरणें अस्ताचलको प्राप्त हो रहीं सूर्यमंडलके प्रति खेंच कर नहीं प्राप्त करा देती हैं । यह तो अपनी इच्छासे चाहे जो गढ लिया गया विज्ञान है। बात यह है कि सूर्यकिरणें भी सूर्यमें ही बैठी हुयी होकर हजारों कोस दूर पडे हुये असम्बन्धित जलको खेंच लेती हैं। वह जल शुष्क हो जाय या बादल बनकर बरस जाय अथवा अन्य पौद्गलिक वायु आदि पदार्थरूप परिणत हो जाय यह निमित्त मिलनेके अधीम होने वाली व्यवस्था है। जैनसिद्धान्त अनुसार किसी भी व्यके गुण, पर्याय, स्वभाव, प्रभाव, किरणें उस द्रव्यसे बाहर प्रदेशोंमें नहीं फैल सकते हैं । अग्निकी लपटें अग्निमें ही रहती हैं। अग्निके मिकट वर्त रहे पौगलिक पदार्थ उस अग्रिके निमित्तसे अत्युष्ण या चमकीले हो गये हैं। व्यवहारी जन कदचित् उपचारसे उसको भी अग्नि कह देते हैं । वस्तुतः अग्नि अपने ही द्रव्यशरीरमें है। उसी प्रकार सूर्य या दीपककी किरणें सूर्य या दपिकलिकादेशसे एक अणु बराबर भी बाहर नहीं जाती हैं । भला द्रव्यके गुण, स्वभाव, शक्तियां, प्रभाव, विना आश्रयके बाहर जावें भी तो आश्रय विना केवल कैसे रह सकते हैं ! भ्राताओ ! सूर्य स्वयं चमकीला पदार्थ है। उसके नीचे या चारों
ओर हजारों कोसतक फैल रहे अन्य पुद्गलस्कन्धोंका ही चाकचक्ययुक्त परिणाम हो गया है। यदि इन्द्र या ऋद्धिधारी योगी सूर्यके निकटवर्ती ( आसपासके ) पुद्गल स्कन्धोंको निकालकर स्थान खाली करदे तो सूर्यका प्रकाश यहां कथमपि नहीं आसकता है। किन्तु यह सम्पूर्ण पुद्गलोंका निकाल देना असम्भव है । यही दीपककी किरणोंमें व्यवस्था करना अर्थात्-दीपकका निमित्त पाकर इतस्ततः फैले हुये अन्य चमकने योग्य पुद्गल ही चमकदार परिणत हो जाते हैं। प्रकाश, उद्योत, प्रभा, दीप्तिका निमित्तकारण न मिलनेपर वे अन्य पुद्गल काळे रंगके होकर अन्धकाररूप परिणत हो जाते हैं।