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तापार्यचिन्तामणिः
जाता है। अतः शरीरमें चारों ओर जाकर मलको खेंच खेंचकर लाना हर्डका कार्य नहीं है। बात यह है कि पेटमें या हाथमें रखी हुयी हरीतकी मलको नहीं प्राप्त होकर भी दूसरे ही मलको मछाशयमें पहुंचाकर रेचना करा देती है । तथैव चुम्बक पाषाण भी लोहका आकर्षण करा देता है, तब तो चक्षुका अप्राप्यकारीपन सिद्ध हो गया। प्राप्तिका ही एकान्त रखना प्रशस्त नहीं हैं। आचार्य महाराजने भी व्यङ्गयसे चक्षुका अप्राप्यकारित्व साधदिया है। .... ताई थथाननानिर्गतो वायुः पमनालादिगः पाप्य पानीयमाननं प्रत्याकर्षति तयायस्कांवांतरगाः परमाणवो बहिरवस्थितायस्कांतावयविनो निर्गताः पाप्य लोइं तं प्रत्येवाकर्षतीति शंकमानं प्रत्याह।
अन्योक्ति द्वारा चक्षुके अप्राप्यकारिखको साधनेकी अमिलाषा रखता हुआ कोई पंडित अन्य दृष्टान्त देकर चुम्बकका प्राप्यकारीपना साध रहा है कि तब तो मुखसे निकल चुकी वायु जैसे कमलनाल या यवनाल अथवा बांसकी पमोली आदिमें प्राप्त हो रही संती ही सम्बन्धित हो रहे जल ठंडाई, दूध, धूआं, आदि पीने योग्य पदार्थको मुखद्वारके प्रति आकर्षण करती है, तिसी प्रकार अयस्कांतके अन्तरंग परमाणुयें या चुम्बक और लोहे के अन्तरालमध्यमें पडे हुये चुम्बक परमाणुयें ही बाहिर स्थिर हो रहे अयस्कांत अवयवीसे निकलते सन्ते ही शरीरके भीतर लोहेको प्राप्त होकर उस लोहेको चुम्बक अव्यवीके प्रति खेंच लेते हैं। इस प्रकार शंका करते हुये प्रतिवादीके प्रति वाचार्य महाराज कहते हैं।
* आकर्षणप्रयत्नेन विनाननकृतानिलः ।
पद्मनालादिगोंभांसि नाकर्षति मुखं प्रति ॥ ८६ ॥ ..... चक्षुके अप्राप्यकारित्वको सिद्ध करनेमें स्याद्वादियोंकी ओरसे दिये गये अयस्कांत शान्तको पद्मनालकी वायुका दृष्टान्त देकर बिगाडना ठीक नहीं है, अथवा भौतिकत्व हेतुका अयस्कात करके हुये व्यभिचारदोषका निवारण यवनालको वायुसे नहीं हो सकता है । क्योंकि मुखसे की गया बायु कमलनली आदिमें प्राप्त हो रही भी आकर्षण प्रयत्नके विना जलोंको मुखके प्रति नहीं खेंच सकती है। भावार्य-मुखकी वायुके छोटे माग पमनालमें होकर जलके साथ चुपट रहे तुम्हारे कहनेसे मान मी लिये जाय किन्तु उस प्राप्त हुए जलका मुखकी बोर खेचना भला प्रयत्नके विना कैसे हो सकता है! वस्तुतः यह विज्ञानयुक्त दीखता है कि मुखमें ही स्थिर हो रही वायु बाकर्षण प्रयत्नकरके दूर स्थित अप्राप्त जलको खींच लेती है। अतः यह आकर्षण वायुका दृष्टान्त उल्टा चक्षुके अप्राप्यकारित्वको पुष्ट करता है। खींचते समय मुखवायुका बाहिर निकलना नहीं अनुभूत. होता है । हां, बाहरसे वायु, जल, तृण, आदिक वहीं मुखवायुसे ही आकर्षण द्वारा खेंच लिये जाते देखनेमें ना रहे हैं। ......
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