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________________ तत्त्वार्थलोकवार्तिके जिस प्रकार कि गन्धद्रव्य या अतिकटु पदार्थ आदिके परमाणुमें वा छोटे छोटे स्कन्ध अपने आधारभूत गन्धवान् पदार्थकी ही अभिमुखता करके पट आदिकमें प्राप्त हो रहे सन्ते कस्तूरी आदि अर्थको उन पट आदिमें ले जाते हैं । अर्थात्-सुगन्ध आदिके सूक्ष्म अवयव दूर पडे हुये भी सुगन्धीद्रव्यको पट आदिके साथ जोड देते हैं । जैसे कि एक विलस्त दूर रखी ज्वालायुक्त अग्निके छोटे छोटे भाग खुले हुये पेट्रोल तेलसे चुपटकर उसी अग्निके द्वारा पैट्रोलको भभका देते हैं, अथवा दूरपर कूटी जा रही, खटाई या सुन्दरव्यंजनोंके छोटे छोटे कण मुंहतक फैलकर मुंहमें लार टपका देते हैं, उसी प्रकार तो लोहमें प्राप्त हो रहे छोटे छोटे भाग अयस्कांत पाषाणको आया हुआ नहीं प्रसिद्ध कर रहे हैं। इस कारणसे सिद्ध होता है कि लोहके साथ सम्बन्धित नहीं हो रहा अयस्कांत पाषाण ही लोहके आकर्षणकर्मको कर रहा है। भावार्थ-कस्तूरीके परमाणुओंकी अपने अधिष्ठानके अनुसार वस्त्रमें प्राप्ति हो रही देखी जाती हैं। किन्तु चुम्बकके सूक्ष्मभागोंका अपने अधिष्ठानके आश्रित होकर निकट जाना नहीं प्रतीत हो रहा । अतः अप्राप्यकारी मनके समान चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है । ननु यथा हरीतकी प्राप्य मलमंगाद्विरेचयति तथायस्कांतपरमाणवः शरीरांतर्गस शल्यं प्राप्याकर्षति शरीरादिति मन्यमानं प्रत्याह । पुनः यहां व्यंग्यसे चक्षुका प्राप्यकारित्व सिद्ध कर रहे किसीकी शंका है कि जिस प्रकार बडी हर्ड हाथ या पेटमें प्राप्त होकर शरीरके सभी अंग उपांगोंसे मलका विशेषरूपसे रेचन ( हंगना) करा देती है । अर्थात्-बहुतसे पौद्गलिक पदार्थोके अंश सर्वदा यहां वहां फैलते रहते हैं। उनके संसर्ग अनुसार पदार्थोमें अनेक नैमित्तिक या औपादानिक विपरिणाम हो जाते हैं। हर्डके छोटे छोटे अवयव शरीरमें सर्वत्र फैलकर मलको प्राप्त होकर गुदद्वारसे बाहर निकाल देते हैं । तिसी प्रकार चुम्बक पाषाणके परमाणुयें भी प्राप्त होकर शरीरके भीतर प्रविष्ट हो गयी सलाई, सूई, कीलको प्राप्त होकर शरीरसे बाहर खींच लेते हैं । इस प्रकार मान रहे प्रतिवादीके प्रति आचार्य महाराज समाधान कहते हैं। प्राप्ता हरीतकी शक्ता कर्तुं मलविरेचनं । मलं न पुनरानेतुं हरीतक्यंतरं प्रति ॥ ८५॥ मलको प्राप्त होकर हर्ड मलका विरेचन करने के लिये तो समर्थ है । किन्तु फिर उस मलको अन्य हर्ड के प्रति लानेके लिये समर्थ नहीं है । अर्थात्-हाथ या पेटमें रखी हुयी हरीतकी अपने सूक्ष्म कणोंकरके शरीरमें फैले हुये मलके पास पहुंच गयी है, यह मान भी लिया जाय किन्तु पेटमें रखी हुयी अन्य हरीतकीके प्रति उस फैले हुये मलको प्राप्त नहीं करा सकेगी। व्यवहारमें ऐसा देखा जाता है कि चारो ओरसे मल एकत्रित होकर पेटमें आ जाता है, और गुदद्वारसे निकल
SR No.090497
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 3
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1953
Total Pages702
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size21 MB
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