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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
आकर्षणक्रिया करनेमें उन अयस्कान्त आदिकी किरणोंकरके भी लोहके साथ चुम्बककी प्राप्ति नहीं हुई है । अत भौतिकत्व हेतु व्यभिचारी है। इस बातको हम और भी अप्रिम प्रन्थोंमें स्पष्ट कह देंगे।
यथा कस्तूरिकाद्रव्ये वियुक्तेपि पयदितः। तत्र सौगंध्यतः प्राप्तिस्तद्धाणुभिरिष्यते ॥ ८ ॥ अयस्कांताणुभिः कैश्चित्तथा लोहेपि सेष्यतां । विभक्तेपि ततस्तत्राकृष्ट्यादेदृष्टितस्तदा ॥ ८१॥ इत्ययुक्तमयस्कांतमा प्रति दर्शनात् । लोहाकृष्टेः परिप्राप्तास्तदंशास्तु न जातुचित् ॥ ८२ ॥
कोई प्रतिवादी कह रहे हैं कि पट, पत्र ( कागज ) आदिकसे कस्तूरी, इत्र, हींगडा आदि द्रव्यके वियुक्त होनेपर भी उन पट आदिकोंमें सुगन्धपना हो जानेके कारण जैसे उन कस्तूरी
आदिककी फैली हुई गन्ध परिमाणुओंके साथ प्राप्ति [ सम्बन्ध ] इष्ट की जाती है, उसी प्रकार लोहेमें भी अयस्कांत चुम्बककी किन्ही किन्ही अणुयें या छोटे छोटे स्कन्धोंके साथ वह प्राप्ति मान लेनी चाहिये । तमी तो उस चुम्बकसे विभक्त होते हुए भी उस लोहेमें उस समय आकर्षण आदि कर्म देखे जाते हैं । भावार्थ-कस्तूरी, केवडा, आदिकी गन्धसे कुछ दूर पडे हुये भी वस्त्र शादिमें उन सुगन्धी पदार्थोके छोटे स्कन्धोंका सम्बन्ध हो जाने के कारण सुवासना उत्पन्न हो जाती मानी गयी है । उसीके समान चुम्बक पाषाणके फैलनेवाले छोटे छोटे स्कन्धोंद्वारा लोहकी प्राप्ति हो जाने पर ही लोहका आकर्षण हो सकता है, अन्यथा नहीं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसी प्रतिवादीका कहना तो अयुक्त है। क्योंकि दूरसे खेचनेवाले, असम्बन्धित हो रहे, अयस्कांत चुम्बकके प्रति ( की ओर ) लोहका आकर्षण हो रहा देखा जाता है । चारो ओरमें किसी भी ओरसे प्राप्त हो रहे उस अयस्कांतके अंश तो कभी भी नहीं देखे जाते हैं । जो कदाचित् भी प्रत्यक्ष गोचर नहीं हो रहा है, उसका मानना अयुक्त है।
यथा कस्तूरिकाद्यर्थ गंधादिपरमाणवः । खाधिष्ठानाभिमुख्येन तानयंति पटादिगाः ॥ ८३॥ तथायस्कांतपाषाणं सूक्ष्मभागाश्च लोहगाः। इत्सायातमितोप्राप्तायस्कांतो लोहकर्मकृत् ॥ ८४ ॥