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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
वैशेषिक अन्य अनुमानोंको बनाते हैं कि (1) चक्षु (पक्ष) प्राप्यकारी है (साध्य) भूतोंका विकार होनेसे ( हेतु ) प्राण इन्द्रियके समान (दृष्टान्त) (२) चक्षु (पक्ष ) प्राप्यकारी है (साध्य) ब्राप्तिका साधकतम होनेसे ( हेतु ) घ्राण आदि यानी नासिका, रसना, त्वचा, श्रोत्रके समान [ अन्वयदृष्टान्त ] वैशेषिकोंके यहां पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ये पांच द्रव्यभूत पदार्थ माने गये हैं । बहिरंग इन्द्रियोंसे ग्रहण करने योग्य विशेषगुणोंको धारनेवाले द्रव्य भूत कहे जाते हैं। तिनमें पृथ्वीसे घाण इन्द्रिय बनती है । जलसे रसना इन्द्रिय उपजती है । चक्षु इन्द्रिय तेजोद्रव्यका विकार है । त्वचा इन्द्रिय वायुका विवर्त है । श्रोत्र आकाशस्वरूप है, जब कि भौतिक चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं तो चक्षु भी प्राप्यकारी होनी चाहिये । घ्राण आदिके समान चक्षु भी ज्ञानका करण है। इस प्रकार वैशेषिकोंके इन अनुमानोंमें पक्ष यानी प्रतिज्ञा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे बाधित है । अतः पूर्वके बाह्य इन्द्रियत्व हेतुके समान भौतिकत्व और करणत्व, हेतु कालात्ययापदिष्ट ( बाधित ) है। केवल इतना ही कहा गया होय यही नहीं समझना । तब और क्या समझा जाय ? इसका उत्तर यही है कि उक्त हेतु व्यभिचारी भी हैं, इस बातका कथन करते हुये आचार्य वार्तिकद्वारा स्पष्ट परिभाषण करते हैं।
अयस्कांतादिना लोहमप्राप्याकर्षता स्वयं ।
अनेकांतिकता हेतोभौतिकार्थस्य बाभ्यते ॥ ७८॥
लोहको स्वयं नहीं प्राप्त होकर दूरसे आकर्षण करनेवाले अयस्कांत या चुम्बक और तृण, पत्ता आदिको अनतिदूरसे खेंचनेवाले मोरपंख, अथवा मीतर अपनी ओर खेंचनेवाली वायु आदि करके हेतुका व्यभिचारीपना है । अतः भौतिक अर्थका प्राप्यकारीपना बाधित हो जाता है । अथवा " भौतिकत्वस्य भाव्यते " ऐसा पाठ होनेपर यों अर्थ करना कि भौतिकत्व हेतुका अयस्कांत आदि करके व्यभिचारीपना भावित किया जाता है । मौतिकत्व हेतुके अयस्कांत आदि करके आये हुये न्पभिचारको ही अग्रिम प्रन्थद्वारा पुष्ट किया जा रहा है।
कायांतर्गतलोहस्य बहिर्देशस्य वक्ष्यते । नायस्कांतादिना प्राप्तिस्तत्करैवोक्तकर्मणि ॥ ७९ ॥
भूल हो जानेपर कभी कभी सानी या भुसके साथ सुई या छोटी कील खाई जाकर भैंस, बळधके पेटमें चली जाती है। चतुरपुरुष उनके शरीरपर चुम्बक पत्थर फेरते हैं। जहां सुई होती है, उसी स्थानसे चुम्बक पाषाण उसको बाहर खींच लेता है । प्रकरणमें यह कहना है कि मैंस, महिष, बैल आदिके शरीरमें भीतर सुई, कील, आदिक लोह प्राप्त होगया है। बाहर देशके में] रखे हुये अयस्कांन, चुम्बकपाषाण, आदिके साथ उस लोहेका सम्बन्ध नहीं है तथा उक्त