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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
कालात्ययापदिष्टश्च हेतुर्बाहोंद्रियत्वतः । इत्यप्राप्तार्थकारित्वे प्राणादेखि वांछिते ॥ ७६ ॥
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आठवीं वार्त्तिकके अनुसार चक्षु इन्द्रिय ( पक्ष ) प्राप्ति होकर अर्थका परिच्छेद करानेवाली है ( साध्य ) इस ढंगका वैशेषिकोंका प्रतिज्ञावाक्य तो प्रत्यक्षप्रमाण और अनुमान प्रमाण तथा श्रेष्ठ युक्तिपूर्ण समीचीन आगमप्रमाणकर के बाधित कर दिया गया सिद्ध हो चुका है। ऐसी दशा में वैशेषिकों द्वारा प्रयुक्त किया गया " बाह्य इन्द्रियपना होने से " यह हेतु बाधित हेत्वाभास है, यानीं प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों करके चक्षुका अप्राप्यकारीपना सिद्ध हो जानेपर पीछे कालमें वह हेतु प्रयुक्त किया गया है । इस प्रकार घ्राण आदिकके समान इस दृष्टान्तसे प्राप्यकारिताको वच्छायुक्त इष्टसाध्य करनेपर बोला गया बाह्य इन्द्रियत्व हेतु बाधित है। क्योंकि तीन प्रमाणोंसे चक्षुमें अप्राप्यकारीपना सिद्ध हो चुका है 1
न हि पक्षस्यैवं प्रमाणबाधायां हेतुः प्रवर्तमानः साध्यसाधनायालमतीत काळत्वादन्यथातिप्रसंगात् ।
वैशेषिक पक्षकी इस प्रकार प्रमाणोंसे बाधा हो चुकनेपर फिर प्रबर्त रहा हेतु तो साध्यको साधने लिए समर्थ नहीं है। क्योंकि हेतु अतीत काल है । साधनकालके बीत जानेपर बोला गया है । अन्यथा यानी प्रमाणोंसे अप्राप्यकारित्वके सिद्ध हो चुकनेपर पीछे बोला गया हेतु भी यदि अपने साध्य प्राप्यकारीपनको साथ लेगा तो नियत व्यवस्थाओंका उल्लंघन करनारूप अतिप्रसंगदोष हो जावेगा । अर्थात्-अग्नि शीतल है, मिश्री मीठी नहीं है, सूर्य स्थिर है, परमाणुयें नहीं है, धर्मसेवन करना परलोकमें दुःखका कारण है, स्वर्ग, नरक आदि नहीं है, इत्यादि प्रति ज्ञायें भी सिद्ध हो जायेंगी । प्रमाणोंसे सिद्ध हो चुकनेपर लठ्ठपांडोंकी भांति मनमानी, घरजानी लाना अनीति है ।
एतेन भौतिकत्वादिसाधनं तत्र वारितं ।
प्रत्येतव्यं प्रमाणेन पक्षबाधस्य निर्णयात् ॥ ७७ ॥
इस उक्त कथन करके भौतिकपना, करणपना आदि हेतु भी उस चक्षुको प्राप्यकारित्व साधने में निवारण कर दिये गये ( किये जा चुके ) समझ लेने चाहिये । क्योंकि प्रमाणोंकरके पक्षकी बाधा हो जानेका निर्णय हो रहा है।
प्राप्यकारि चक्षुभौतिकत्वात्करणत्वात् घ्राणादिवदित्यत्र न केवलं पक्षः प्रत्यक्षादिबाधितः । कालात्ययापदिष्टश्चेद्धेतुः पूर्ववदुक्तः । किं तर्ह्यनेकांतिकश्चेति कथयन्नाह !