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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
यहां और दूसरे नैयायिक वैशेषिकोंके यहां समानरूपसे मान ली गई है । इस कारण उस प्रकरणमें हमारे विवाद करनेसे क्या तात्पर्य है ! अर्थात्-झगडा बढानेसे हमें कुछ नया पदार्थ साध्य नहीं करना है । जो बानकी विचित्रताका कारण हमें साध्य करना था, वह वैशेषिकोंने परिशेषमें प्रसन्नतासे स्वीकार कर लिया है।
स्याद्वादिनामपि हि चक्षुरप्राप्यकारि केषांचिदतिशयज्ञानभृतामृद्धिमतामस्मदाद्यगोचरं विप्रकृष्टस्वविषयपरिच्छेदकंतादृशं तदावरणक्षयोपशमविशेषसद्भावात् । अस्मदादीनां तु यथाप्रतीति स्वार्थप्रकाशकं स्वानुरूपतदावरणक्षयोपशमादिति सममदृष्टवैचित्र्यं ज्ञानवैचित्र्यनिबंधनमुभयेषां । ततो न नयनामाप्यकारित्वं बाध्यते केनचित् घ्राणादिमाप्यकारित्ववदिति न तदागमस्य बाधोस्ति येन बाघको न स्यात् पक्षस्य । तदेवं
___ स्याद्वादियों के सिद्धान्तमें भी नियमसे चक्षु अप्राप्यकारी है। हां, किन्ही किन्ही अतिशययुक्त शानको धारनेवाले और कोष्ठ, दूरात् विलोकन, आदि ऋद्धिवाले जीवोंकी तैसी योग सारिखी चक्षुयें तो उन ज्ञानोंको रोकनेवाले चाक्षुष प्रत्यक्षावरणके विशिष्ट क्षयोपशमका सद्भाव होनेसे उन विप्रकृष्ट खभाववाळे स्वकीय विषयोंकी परिच्छेदक हो जाती हैं, जिन विषयोंको कि अस्मद् आदि जीवोंकी सामान्य चक्षुयें नहीं जान सकती हैं । यानी विशिष्ट क्षयोपशम होनेसे वैशेषिकोंके यहां योगियोंकी और हमारे यहां ऋद्धिमान् अतिशय ज्ञानी जीवोंकी चक्षुयें विप्रकृष्ट पदार्थोको भी जान लेती हैं। हो, हम तुम आदि सामान्य जीवोंकी चक्षुयें तो जैसा जैसा अल्प, दूर, मोटे, लम्बे चौडे, अव्यवहित, पदार्थको देखती हैं, वैप्ता प्रतीतिके अनुसार अपने विषयका प्रकाशकपना चक्षुओंको अपने अपने अनुरूप उस चाक्षुषप्रत्यक्षावरणके क्षयोपशमसे अप्राप्त अर्थका प्रत्यक्ष करा देनापन मान लिया जाता है। वह चाक्षुषप्रत्यक्ष अपनेको और स्वविषयको जान जाता है । इस प्रकार ज्ञानकी विचित्रताका कारण अदृष्टवैचित्र्य दोनों वादी-प्रतिवादियों के यहां समान है । तिस कारण नेत्रोंका अप्राप्यकारीपना किसी भी प्रमाणसे बाधित नहीं हो पाता है, या किसी भी वादी पण्डित करके बाधित नहीं किया जा सकता है । जैसे कि नासिका, रसना आदि इन्द्रियोंका प्राप्यकारीपना अबाधित है, इस प्रकार इमारे चक्षुको अप्राप्यकारी कहनेवाले " अपुढे पुणवि पस्सदे एवं " उस आगमकी बाधा नहीं आती है, जिससे कि हमारा आगमप्रमाण तुम्हारे चक्षुके प्राप्यकारित्वको सिद्ध करनेवाले अनुमानका बाधक नहीं होवे । अर्थात्-हमने दसवीं कारिकामें चक्षुके प्राप्यकारीपनका बाधक जो आगमप्रमाण बताया था, वह सिद्ध कर दिखा दिया है । तब तो इस प्रकार यह सिद्धान्त बना कि
प्रत्यक्षेणानुमानेन स्वागमन च बाधितः । पक्षः प्राप्तिपरिच्छेदकारि चक्षुरिति स्थितः ॥ ७५॥