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तत्वार्थचिन्तामणिः
एकसी है, कोई भेद नहीं है, तो भी चक्षुकी शक्ति इस प्रकारकी है कि जिस शक्तिकरके किसी एक दूर अर्थको जो कि विदिशाओं में प्रतिमुख पडा नहीं होकर सन्मुख स्थित हो रहा है, अच्छा देख लेती है । और अन्य अयोग्य अतिदूरके विप्रकृष्ट पदार्थोंको नहीं देख पाती है । शक्तिरूप योग्यता तो सर्वत्र माननी पडेगी । सर्वथा भेदवादी वैशेषिकोंके यहां कारणोंसे कार्यसमुदाय जब सर्वथा भिन्न माना गया है, तो चाहे जिस कारणसे कोई भी कार्य क्यों नहीं सम्पादित हो जाता है ? तुम्हारे यहां भी इसका समीचीन उत्तर योग्यता के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकता है । जगत् में भिन्न हो रहे और दूर पडे हुये अनेक मिमित्त कारण न जाने कहां कहांके नैमित्तिकोंकी बनाते रहते हैं । " स्वभावोऽतर्कगोचरः " । अतः अप्राप्ति होनेपर भी चक्षुः इन्द्रियविचारी योग्यपदार्थका ही प्रत्यक्ष करावेगी, अयोग्य अर्थोका नहीं ।
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ननु च घ्राणादींद्रियं प्राप्यकारि प्राप्तमपि तत्राणुगंधादियोगिनः परिच्छिनत्ति नास्मदादेस्तादृशादृष्टविशेषस्याभावात् महत्वाद्युपेतद्रव्यं गंधादि तु परिच्छिनति तादृगदृष्ट-: विशेषस्य सद्भावादित्यदृष्टवैचित्र्यात्तद्विज्ञानभावाभाववैचित्र्यं मन्यमानान् प्रत्याह ।
यहां कोई शंकाकार ऐसा मान बैठे हैं कि हम अज्ञजीवोंकी घ्राण आदि इन्द्रियां तो प्राप्त हो रहे परमाणु के गन्ध, रस, स्पर्शोको नहीं जानती हैं, किन्तु योगियोंकी प्राप्यकारी प्राण आदि इन्द्रियां तो चुपटे हुये अणुमें प्राप्त हो रहे अणुओंकी गन्ध आदिको भी चारों ओरसे जान लेती हैं। उस प्रकारका पुण्यविशेष हम लोगोंके पास विद्यमान नहीं है । अतः अस्मद् आदिकी बहिः इन्द्रियां - परमाणु, द्वणुक गन्ध आदिकको नहीं जान सकती है। हां, महत्त्व, उद्भूत, रूप, अनभिभव, आदि सहित हो रहे द्रव्य या उसके गंध आदि गुणोंको तो जान लेती हैं। क्योंकि तिस प्रकारके महत्त्व अनेक द्रव्यवस्व आदिसे सहित हो रहे पदार्थोंको जाननेका पुण्यविशेष हम स्थूलदृष्टियोंके पास विद्यमान है । इस प्रकार अदृष्ट (ज्ञानावरणके क्षयोपशम, या क्षय ) की विचित्रतासे उन विज्ञानोंके होने नहीं होने की विचित्रता बन जाती है । युक्त और युजान नामक योगियों के योगाभ्यासले उत्पन्न हुआ धर्मविशेष
। उसकी सहायतासे अणुस्वरूप परमाणु यणुकोंके गन्ध आदिका बहिः इन्द्रियों द्वारा इन्द्रियजन्य ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार मन्तव्य रखनेवाले वैशेषिकोंके प्रति आचार्य महाराज समाधान कहते हैं ।
समं चादृष्टवैचित्र्यं ज्ञानवैचित्र्यकारणं ।
स्याद्वादिनां परेषां चेत्यलं वादेन तत्र नः ॥ ७४ ॥
एक बात यह भी है कि पुण्य पाप कहो या प्रकरण अनुसार ज्ञानावरणका क्षयोपशम, क्षय को ऐसे अदृष्टकी विचित्रता ही तदुत्पन्न ज्ञानकी विचित्रताका कारण है। यह बात हम स्पाद्वादियों के