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तत्वार्यश्लोकवार्तिके
' तस्य प्राप्ताणुगंधादिग्रहणस्य प्रसंजनम् ।
घ्राणादेः प्राप्यकारित्वे बाधकं केन बाध्यते ॥ ७१ ॥ .... यहां कोई नैयायिक या वैशेषिक यों जैनोंके आगममें बाधा उठा सकते हैं कि नेत्रको यदि अप्राप्यकारी माना जायगा तो दूरदेशवर्ती या भूत, भविष्यत्-कालवर्ती विप्रकृष्ट अर्थीका नेत्रद्वारा ग्रहण करा देनेपनका प्रसंग आवेगा, जैसे कि अप्राप्यकारी मन इन्द्रियसे दूर देशके और कालांतरित, पदार्थीका ग्रहण करा दिया जाता है । अर्थात्-नेत्रोंको विषयके साथ सम्बन्ध हो जानेकी जब आवश्यकता ही नहीं रही तो सुमेरुपर्वत, स्वयंप्रभद्वीप या राम, रावण, शंख आदिका चाक्षुष प्रत्यक्ष अब हो जाना चाहिये । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नेत्रके अप्राप्यकारीपनमें जिस विद्वान् द्वारा उक्त प्रसंग प्राप्त होना बाधक कहा जाता है, उसके यहां घ्राण, स्पर्शन आदिक इन्द्रियोंके प्राप्यकारीपन अनुसार प्राप्त हो रही परमाणुके गंध, रस, स्पर्शके भी ग्रहण हो जानेका प्रसंग क्यों नहीं बाधक होगा ! नासिका आदिके प्राप्यकारीपनमें हुये इस बाधककी भला किस करके बाधा उठायी जा सकती है ! अर्थात्-चक्षुके अप्राप्यकारीपनमें जैसे यह प्रसंग बाधक उठाया जा सकता है कि दूर देश कालके पदार्थोको भी चक्षु देख लेवे, उसी प्रकार घ्राण अथवा रसनाके प्राप्यकारीपनमें इस प्रसंगरूप बाधकको क्या कोई मार डालेगा कि घ्राण या रसनाके साथ प्ररमाणु भी तो चुपट रही है । फिर उसका गन्ध या रस क्यों नहीं जाना जाता है ? बताओ । वैशेषिक इसका क्या उत्तर दे सकते हैं ! । कुछ भी नहीं।
सूक्ष्मे महति च प्राप्तेरविशेषेपि योग्यता। . गृहीतुं चेन्महद्रव्यं दृश्यं तस्य न चापरम् ॥ ७२ ॥
तीप्राप्तेरभेदेपि चक्षुषः शक्तिरीदृशी ।
यथा किंचिद्धि दूरार्थमविदिकं प्रपश्यति ॥७३॥
इस पर वैशेषिक यदि यों कहें कि परमाणु, द्वथणुक आदिक सूक्ष्म पदार्थ और घट, कौर इत्र, आदि स्थूल पदार्थोंमें स्पर्शन, रसना, घ्राण इन्द्रियोंकी प्राप्ति होना यद्यपि विशेषताओंसे रहित है, एकसा है, फिर भी महत्त्व परिणामयुक्त द्रव्य ही उन इन्द्रियोंद्वारा प्रत्यक्ष करने योग्य है । अन्य सूक्ष्मपदार्थोकी इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो जानेकी योग्यता नहीं है, “ महत्त्वं षड्डिधे हेतुः " छहों प्रकारके इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंमे महत्त्व कारण है । महत्त्वावच्छिन्न जो पदार्थ इन्द्रिय संयुक्त होगा, उसका या उसमें रहनेवाले गुण, जाति, आदिका इन्द्रियों से प्रत्यक्ष हो जायगा शेष पदार्थोका नहीं होगा, तब तो हम जैन भी कह देंगे कि चक्षु अप्राप्ति यद्यपि समवहित और विप्रकृष्ट पदार्थोके साथ