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'तत्वार्थचिन्तामणिः
सोलहवीं वार्तिकसे आरम्भा था। वही चक्षुके अप्राप्यकारीपनका बापक हेतु होता हुआ वैशेषिक, नैयायिक, आदि दूसरे विद्वानोंकरके स्वीकार किये गये प्राप्यकारीपनके पक्षका बाधक है।
एवं पक्षास्याध्यक्षबाधामनुमानवायां च प्ररूप्यागमवायां च दर्शयन्नाह ।
इस प्रकार वैशेषिकोंद्वारा माने गये चक्षुके प्राप्यकारीपन पक्षकी प्रत्यक्षप्रमाणसे हो रही बाधाका और अनुमान प्रमाणोंसे आरही बाधाका अच्छा निरूपणकर अब आगमप्रमाणसे आरही बाधाको दिखलाते हुये ग्रन्धकार श्रीविद्यानन्द आचार्य स्पष्ट कथन करते हैं, जो कि उन्होंने नौवीं या दशवीं वार्तिकसे सूचित कर दिया था।
स्पृष्टं शब्दं श्रृणोत्यक्षमस्पृष्टं रूपमीक्षते । स्पृष्टं बद्धं च जानाति स्पर्श गधं रसं तथा ॥ ६८॥ इत्यागमश्च तस्यास्ति बाधको बाधवर्जितः। चक्षुषोपाप्यकारित्वसाधनः शुद्धधीमतः॥ ६९ ॥
" पुढे सुणोदि सई, अपुढे पुणवि पस्सदे रूवं । गंध रसं पास, पूई बर्द विजाणादि " श्री महावीर स्वामीकी आम्नायसे, चले आये हुये प्राचीन शास्त्रोंमें कहा है कि कर्ण इन्दियसे छूये जा चुके शब्दको कान द्वारा जीव सुन लेता है। और चक्षुके साथ नहीं छये जा चुके रूपको आंखद्वारा संसारी जीव देखता है । तथा स्पर्शन, घ्राण, रसना, इन्द्रियोंसे छये हुये होकर बंधे जा चुके स्पर्श, गंध, रसोंको त्वक्, नासिका, जिह्वा, इन्द्रियोंद्वारा जीव जानता है। इस प्रकारका बाधाओंसे रहित प्रामाणिक आगम उस चक्षुके प्राप्यकारीपनका बाधक है। और विशुद्ध बुद्धिवाले पुरुषोंके सन्मुख वह आगम चक्षुके अप्राप्यकारीपनका साधन करा देता है। इस ढंगसे प्रत्यक्ष अनुमान और निर्बाध आगम इन प्रमाणोंसे चक्षुके प्राप्यकारीपनकी बाधा होकर अप्राप्यकारीपना साध दिया गया है।
_ ननु नयनामाप्यकारित्वसाधनस्यागमस्य पापारहितत्वमसिद्धमिति पराकूसमुपदर्य दक्षयनाइ।
यहां कोई शंका करता है कि नेत्रोंके अप्राप्यकारीपनको साधनेवाले बागमका बाधारहितपना असिद्ध है, ऐसी दूसरोंकी सशंक चेष्टाको ( अनुवाद करते हुये ) दिखलाकर उसको ग्रन्थकार दूषित करते हुये अग्रिम वार्तिकको कहते हैं ।
मनोवद्विपकृष्टार्थग्राहकत्वानुषंजनं ।। नेत्रस्याप्राप्यकारित्वे बाधकं येन गीयते ॥ ७० ॥