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तस्वार्थ लोकवार्तिके
तत्रेद चिंत्यते तावदिंद्रियं किमु भौतिकम् । चेतनं वा प्रमेयस्य परिच्छित्तौ प्रवर्त्तते ॥५॥ न तावद्भौतिकं तस्याचेतनत्वाद् घटादिवत् । मृतद्रव्येंद्रियस्यापि तत्र वृत्तिप्रसंगतः ॥६॥
तिस शंका या नैयायिक द्वारा स्वसिद्धान्त अवधारणके प्रकरणमें प्रतिवादीके सन्मुख आचार्य महाराज प्रथम ही यह विचार करते हैं कि आपने इन्द्रियको प्रमाण माना, उसमें हमें यह पूछना है कि क्या पृथ्वी, आदिसे बनी हुयीं पौद्गलिक इन्द्रियाँ प्रमेयकी परिच्छित्ति करनेमें प्रवर्त्त रही हैं ! अथवा क्या आत्माका परिणामरूप चेतन इन्द्रियां प्रमेयकी परिच्छित्तिमें साधकतम हो रही हैं ! बताओ । तहां प्रथमपक्षके अनुसार पौद्गलिक चक्षु आदिक इन्द्रियां तो प्रमाके करण नहीं हैं। क्योंकि घट, पट, आदि जड पदार्थोके समान वे अचेतन हैं । अचेतन पदार्थ तो परिच्छित्तिका करण नहीं हो सकता है । अन्यथा मृतपुरुषकी जडव्यस्वरूप इन्द्रियोंको भी उस परिच्छित्तिके करानेमें प्रवृत्ति होनेको प्रसंग हो आयगा।
प्रमात्राधिष्ठितं तच्चेत्तत्र वर्तेत नान्यथा । किं न स्वापाद्यवस्थायां तदधिष्ठानसिद्धितः ॥ ७॥ आत्मा प्रयत्नवांस्तस्याधिष्ठानान्नाप्रयत्नकः । खापादाविति चेत्कोयं प्रयत्नो नाम देहिनः॥८॥ प्रमेये प्रमितावाभिमुख्यं चैतदचेतनम् । यद्यकिंचित्करं तत्र पटवत् किमपेक्ष्यते ॥ ९॥ चेतनं चैतदेवास्तु भावेंद्रियमबाधितम् । यत्साधकतमं वित्तौ प्रमाणं स्वार्थयोरिह ॥ १० ॥
प्रमितिके कर्ता आत्मासे अधिष्ठित होकर वे इन्द्रियाँ उस प्रमारूप कार्य करनेमें प्रवर्तेगी अन्यथा यानी प्रमाताके अधिकारमें प्राप्त हुये विना वे नहीं प्रवर्तेगीं। मृत शरीर में रहनेवाली इन्द्रियोंका अधिष्ठाता आत्मा नहीं रहा है । अतः वे परिच्छित्तिरूप कार्यको नहीं करती हैं । इस प्रकार नैयायिकोंके कहनेपर तो हम जैन प्रतिपादन करते हैं कि स्वप्न, मूर्छा, मृगी रोग, आदि अवस्थाओंमें उस आत्माके अधिष्ठातापनकी सिद्धि हो रही हैं तो फिर उस अवस्थामें इन्द्रियाँ क्यों नहीं परिच्छित्तिको करती हैं ! बताओ। यदि आप नैयायिक यों कहें कि बुद्धिपूर्वक प्रयत्न करनेवाला