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तत्त्वार्थचन्तामणिः
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पडे हुये विवादोंका निराकरणपूर्वक ठीक ठीक स्वरूपका निश्चय और संख्याका विधान कर देनेसे यह सूत्र कहा ही जा रहा है। अर्थात्-उक्त दोनों कार्य इस सूत्रसे ही हो सकते हैं । अन्यथा नहीं।
ननु प्रमीयते येन प्रमाणं तदितीरणम् । प्रमाणलक्षणस्य स्यादिन्द्रियादेः प्रमाणता ॥३॥ तत्साधकतमत्वस्याविशेषात्तावता स्थितिः।
प्रामाण्यस्यान्यथा ज्ञानं प्रमाणं सकलं न किम् ॥४॥ .. .... ___ यहां " प्रमाकरणं प्रमाणं " प्रमितिके करणको प्रमाण कहनेवाले नैयायिक या सांख्य कहते हैं कि जिस करके प्रमा की जाय वह प्रमाण है, इस प्रकार प्रमाणका लक्षण कथन करना चाहिये था, जिससे कि इंद्रिय, सन्निकर्ष, आदिको प्रमाणपना बन जाता है। ज्ञानके समान इन्द्रिय आदिको भी उस ज्ञप्तिक्रियाका प्रकृष्ट उपकारकरूप साधकतमपना अन्तररहित है । प्रमितिके साधकतम पनेसे ही प्रमाणपनेकी स्थिति है, तितनेसे ही प्रमाणलक्षणकी परिपूर्णता होजाती है । अन्यथा यानी प्रमाणके लक्षणमें यदि ज्ञानको डालदिया जायगा तो सभी संशय, आदि ज्ञान भी क्यों नहीं प्रमाण बन जावें, जो कि जैनोंको भी इष्ट नहीं हैं।
इंद्रियादिप्रमाणमिति साधकतमत्वात्सुप्रतीतौ विशेषणज्ञानवत् यत्पुनरप्रमाणं तम साधकतमं यथा प्रमेयमचेतनं चेतनं वा शशधरद्वयविज्ञानमिति प्रमाणत्वेन साधकतमत्वं व्याप्तं न पुनर्ज्ञानत्वमज्ञानत्वं वा तयोः सद्भावेपि प्रमाणत्वानिश्चयादिति कश्चित् ।
पूर्वपक्षी वादीकी उक्त कारिकाओंका विवरण इस प्रकार है कि इन्द्रिय, सनिकर्ष, आदिक (पक्ष ) प्रमाण हैं ( साध्य ) । समीचीन प्रतीति करनेमें प्रकृष्ट उपकारक होनेसे ( हेतु ) जैसे कि विशेषणका ज्ञान विशेष्यकी प्रमिति करानेमें साधकतम हो जानेसे प्रमाण माना गया है। ( अन्वयदृष्टान्त ) मनुष्य सामान्यका ज्ञान होनेपर फिर दण्डके दीख जानेसे दण्डी मनुष्यका ज्ञान हो जाता है । वैशेषिकोंने उस विशेष्यका ज्ञान करानेमें दण्ड ज्ञानको करण माना है। व्यतिरेक व्याप्ति यों है कि जो जो फिर प्रमाण नहीं हैं, वह प्रमाका साधकतम भी नहीं है । जैसे कि घट, पट आदिक जड प्रमेय हैं । अथवा एक चन्द्रमामें हुये चन्द्रद्वयका ज्ञान चेतन होता हुआ भी प्रमाण नहीं है (दो व्यतिरेक दृष्टान्त ) । इस प्रकार प्रमाणपनेसे प्रमितिका साधकतमपना व्याप्त हो रहा है, किन्तु फिर ज्ञानपना अथवा अज्ञानपना व्याप्त नहीं है। क्योंकि उनके विद्यमान होनेपर भी प्रमाणपनेका निश्चय नहीं हो रहा है । अर्थात्-संशय, विपर्यय, ये ज्ञान तो हैं, किन्तु प्रमाण नहीं है और जड घट, पट, आदि अज्ञानरूप भी किसीके द्वारा प्रमाण नहीं माने गये हैं । इसे प्रकार कोई प्रतिवादी कह रहा है ।