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तत्त्वार्थ लोकवार्तिके
फिर यह सूत्र किस कारण कहा जारहा है ? ऐसी जिज्ञासा होनेपर श्री विद्यानन्द आचार्य उत्तर कहते हैं ।
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स्वरूपसंख्ययोः केचित्प्रमाणस्य विवादिनः । तान्प्रत्याह समासेन विदधत्तद्विनिश्चयम् ॥ १ ॥ तदेव ज्ञानमा स्थेयं प्रमाणं नेंद्रियादिकम् । प्रमाणे एव तद्ज्ञानं नैकत्र्यादिप्रमाणवित् ॥ २ ॥
प्रमाणके स्वरूप और संख्या में विवाद करनेकी टेव रखनेवाले कोई प्रतिवादी विवाद कर रहे हैं। उनके प्रति उस प्रमाणके स्वरूप और संख्याका संक्षेपसे विशेष निश्चयको कराते हुये उमास्वामी महाराज " तत्प्रमाणे " सूत्रका स्पष्ट उच्चारण करते हैं । अर्थात् वे पांच समीचीन ज्ञान ही प्रमाण हैं । यह तो प्रमाणका लक्षण है । और वे प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्षरूप हैं । यह प्रमाणकी संख्याका निर्णय है । इस सूत्र में वे पांच ज्ञान ही प्रमाण हैं । इस प्रकार उद्देश दलमें एवकार लगाने से इन्द्रिय, सन्निकर्ष, आदिक प्रमाण नहीं बन पाते हैं, यह विश्वास कर लेना चाहिये तथा वै ज्ञान दो प्रमाणरूप ही हैं। ऐसा उत्तर विधेय दलमें एव लगानेसे एक, तीन, चार आदि प्रमाणोंके न होनेकी संवित्ति कर लेना । वे ज्ञान दो ही प्रमाण हैं ।
प्रमाणं हि संख्यावनिर्दिष्टमत्र तत्त्वसंख्यावद्विवचनान्तप्रयोगात् । तत्र तदेव मत्यादिपंचभेदं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमित्येकं वाक्यमिंद्रियाद्यचेतन व्यवच्छेदेन प्रमाणस्वरूपनिरूपणपरं । तन्मत्यादिज्ञानं पंचविधं प्रमाणे एवेति द्वितीयमेकत्र्यादिसंख्यांतरव्यवच्छेदेन संख्याविशेषव्यवस्थापनप्रधानमित्यतः सूत्रात्प्रमाणस्य स्वरूपसंख्याविवादनिराकरणपुर:सरनिश्वयविधानात् इदमभिधीयत एव ।
इस सूत्र में तत्त्वोंकी संख्या के समान संख्यावाले प्रमाणका कथन किया है। क्योंकि नपुंसक लिंग प्रमाणशद्वका प्रथमाके द्विवचन " औ" विभक्तिको अन्तमें लगाये हुये प्रमाण पदका प्रयोग किया गया हैं । अतः संख्यासे सहित हो रहा प्रमाण कहा जा चुका है तहां मति आदिक पांच भेद वाले वे ही सम्यग्ज्ञान प्रमाण हैं, इस प्रकार पूर्वदलमें एव लगाकर एक वाक्य बनाना जो कि इन्द्रिय, सन्निकर्ष, ज्ञातृव्यापार आदि अचेतन पदार्थोंका व्यवच्छेद करके प्रमाणके स्वरूपको निरूपण करनेमें तत्पर हो रहा है। तथा वे मति आदिक पांच प्रकारके ज्ञान दो प्रमाणरूप ही हैं, इस प्रकार उत्तरदल में एव लगाकर दूसरा वाक्य बनाना जो कि चार्वाक, सांख्य, आदिकों करके मानी गयी एक, तीन, चार, पांच आदि अन्य संख्यायोंका निराकरण कर ठीक ठीक विशेष संख्याक व्यवस्था करानेका प्रधान कार्य कर रहा है । इस सूत्र द्वारा प्रमाणके स्वरूप और संख्या में