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NALO तत्वायचिन्तामणिः
प्रत्येक पदार्थमें प्रदर्शन कर विरोध आदि दोषोंका परिहार किया है। सामान्य और विशेष दोनों ही वस्तुके परिणाम होते हुये अविनाभाव रूपसे एकत्र रहते हैं। सूत्रमें दोनों ओरसे अवधारणको इष्टकर स्मृति, व्याप्तिज्ञान, आदिका मतिसे ग्रहण करना पुष्ट किया है। स्मृति आदिक ज्ञान प्रमाण हैं। श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, आदिका मण्डन कर मति और श्रुतके एक हो जानेपनका खण्डन किया है । वास्तवमें विचारा जाय तो पोखर और समुद्र के समान मति, श्रुत, न्यारे न्यारे हैं। छह छह इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुये मतिज्ञानसे गृहीत विषयोंके सजातीय, विजातीय अन्य पदार्थोको जाननेवाला श्रुतज्ञान होता है । आगे चलकर प्रयक्ष आदि सभी ज्ञानोंको स्वांशमें परोक्ष माननेवाले मीमांसकोंके सिद्धान्तका निरास करके मिथ्याज्ञान, सम्यग्ज्ञान, सभी ज्ञानोंका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना साधा है। आत्मा या फलज्ञानके समान करणज्ञान भी स्वसंवेद्य है। प्रमितिके कर्मका ही प्रत्यक्ष होना पद एकान्त प्रशस्त नहीं है । ज्ञानांतरोंसे ज्ञानका प्रत्यक्ष माननेवाले नैयायिकका निराकरण कर ज्ञानको अचेतन कहनेवाले सांख्य सिद्धान्तका खण्डन किया है। चैतन्य और ज्ञान ये दो पदार्थ नहीं हैं। कपिलोंने प्रकृतिका परिणामज्ञान और आत्माका स्वभाव चैतन्य इष्ट किया है। वह भ्रममूलक है। जगत्में समीचीन ज्ञान पांच ही हैं । ज्ञानके विषयोंकी तारतम्यरूप वृद्धि और ज्ञानके विशदपन सम्बंधी अतिशयकी क्रम क्रमसे वृद्धि होती देखी जाती है । वह मतिज्ञानसे प्रारम्भ होकर अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानको मध्यमें लेती हुयी केवलज्ञानतक प्रकर्षयुक्त हो जाती है । जैसे कि परमाणु या अवसन्नासन्नसे प्रारम्भ कर पर्वत, समुद्र आदिको मध्यमें नापता हुआ परिमाणका अतिशय आकाश तक पहुंच जाता है । अन्तमें भव्य जीवोंको परम पुरुषार्थ केवलज्ञानकी प्राप्ति रूप मोक्ष उपादेय है। मति, आदिक केवलज्ञानपर्यंत पाचों ही ज्ञान समीचीन हैं।
समारोपास्तत्वग्रहपरिधिलक्ष्माणि जहतः । सदा लोकालोकाववगमयतोऽनन्तकलिनः॥ सुधांशोमत्यादेर्दुरितजलदानावृततनोः।. प्रमा ज्योत्स्ना भिन्द्यात्तम इव महामोहमभितः ॥१॥
-xश्री उमास्वामी महाराज उन ज्ञानोंके विधेय अंशको दिखलानेके लिये सूत्रका अवतार करते हैं। ...... तत्प्रमाणे ॥१०॥ स्व और अर्थका व्यवसाय करनेवाले वे पांचो ज्ञान प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाणरूप हैं। कुतः पुनरिदमभिधीयते-।