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स्वार्थ लोकवार्त
प्रतीक्षा नहीं करते हैं । तुम जानो या न जानो वे तो अपने कार्य करनेमें सदा तत्पर रहते हैं। एक दृष्टान्त हैं कि एक अफीमची रातको देरीसे सोकर दुपहरको उठे । किसी मनुष्यने पूंछा कि आप आज बहुत देर से उठे, तिसपर अहिफेनको खानेवाला उत्तर देता है कि हम तो ठीक समयपर उठे किन्तु हम क्या करें गलती से आज सूर्यका उदय छह घंटे पहिले ही होगया है । इस उत्तरको सुनकर उपस्थित जनोंमें महान् हास्य कोलाहल हुआ । बात यह है कि कारक हेतु अज्ञात होकर भी कार्य निमग्न रहते हैं । किन्तु ज्ञापक हेतु ज्ञानान्तरसे ज्ञात हुये ही ज्ञापक हो सकते हैं । इन बातोंकी हम पूर्व प्रकरणों में बहुत से चिंतना करचुके हैं यहां प्रकरणको नहीं बढाते हैं ।
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प्रधानपरिणामत्वात् सर्वं ज्ञानमचेतनम् । सुखक्ष्मादिवादित्येके प्रतीतेरपलापिनः ॥ ५६ ॥ चेतनात्मतया वित्तेरात्मवत्सर्वदा धियः । प्रधानपरिणामत्वासिद्धेश्वेति निरूपणात् ॥ ५७ ॥ तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं चेतनमंजसा । सम्यगित्यधिकाराच्च संमत्यादिकभेदभृत् ॥ ५८ ॥
ज्ञानमें असिद्ध है । असिद्ध हेत्वाभास
कपिल मत अनुयायी कहते हैं कि सम्पूर्णज्ञान ( पक्ष ) अचेतन हैं ( साध्य ) । सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी साम्य अवस्थारूप प्रकृतिका परिणामपना होनेसे ( हेतु ) सुख, दुःख, मोह, पृथ्वी, जल, आदिके समान ( दृष्ठान्त), इस प्रकार जो कोई एक सांख्य कह रहे हैं, वे भी प्रतीतिका अपलाप ( छिपाना ) कर रहे हैं। क्योंकि आत्माके समान ज्ञानका सदा करके संवेदन हो रहा है । इस कारण प्रधानका परिणामपना तो साध्यको सिद्ध नहीं कर पाता है । वस्तुतः ज्ञान तो आत्मका परिणाम है । ज्ञान और चैतन्य एक ही है । इन बातोंका हम पहिले सूत्र के अवतार प्रकरण में निरूपण कर चुके हैं । तिस कारण अबतक सिद्ध हुआ कि वह अपनेको और अर्थको निश्चय स्वरूप जाननेवाला ज्ञान साक्षात् चेतन स्वरूप है । तथा सम्यक् इस पदका अधिकार ( अनुवृत्ति ) चले आनेके कारण सम्यक् मति, सम्यक् श्रुत आदि भेदोंको धारण करनेवाला वह ज्ञान है । अर्थात् — अपने और अर्थको एक ही समय में जाननेवाले मति आदिक पांच चैतन्य रूप ज्ञान हैं ।
इस सूत्र के प्रकरणों की स्थूलरूपसे सूची इस प्रकार है कि प्रथम ही अनेक प्रवादियों के मिया को दूर करनेके लिये उमास्वामी महाराजके सूत्रका ही पांचों ज्ञानोंके लक्षण दिखलाये गये हैं । पुनः ज्ञानोंके क्रमपूर्वक कथनकी उपपत्ति कर मति आदिक ज्ञानrant अन्वय किया है। यहां 'सामान्य, विशेष, या कथंचित् भेद, अभेदका
अवतारण कर शद्वकी निरुक्तियोंसे
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