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तत्वाचिन्तामणिः
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आत्मा उनका अधिष्ठापक है, स्वप्न आदिकमें प्रयत्नरहित आत्मा तो अधिष्ठाता नहीं बन रहा है, इस कारण मूर्छा आदि अवस्थामें इन्द्रियाँ अधिष्ठाताके पुरुषार्थ विना प्रमितिकार्यको नहीं करती हैं । इस प्रकार कहनेपर तो हम जैन तुमसे पूंछते हैं कि शरीरधारी आत्माका यह प्रयत्न भला क्या वस्तु पडता है ! बताओ । प्रमेय विषयमें प्रमितिको उत्पन्न करनेमें आत्माका अभिमुखपना यदि प्रयत्न है ! तब तो यह अभिमुखपना अचेतन हुआ। पटके समान अचेतन पदार्थ उस परिच्छित्तिक्रियामें कुछ भी न करता हुआ अकिंचित्कर है। वह अकिंचित्कर अचेतन भला क्यों अपेक्षणीय होगा ? यदि आत्मामें प्रमितिके निमित्त अभिमुखपना यदि चेतन है तब तो यह चेतन पदार्थ ही बाधारहित होता हुआ भाव इन्द्रिय होजाओ, जो कि चेतनस्वरूप, भाव इन्द्रियाँ यहां स्व और अर्थकी प्रमा करनेमें साधकतम होती हुयी प्रमाण हैं। इससे तो चेतनको ही प्रमाण माननेवाला जैनसिद्धान्त पुष्ट हुआ।
एतेनैवोत्तरः पक्षः चिंतितः संप्रतीयते । ततो नाचेतनं किंचित्पमाणमिति संस्थितम् ॥ ११ ॥
इस ही उक्त कथनसे यानी चेतन परिणामको ही प्रमाणपनकी पुष्टि कर देनेसे दूसरा पक्ष भी विचारित कर दिया गया, भले प्रकार जाना जारहा है। अर्थात् -पहिले इन्द्रियोंमें जड और चेतनके दो पक्ष उठाये थे, वहांके प्रथमपक्षका परामर्श हो चुका । अब दूसरे पक्षका भी सिद्धसाध्यता दोष हो जानेके कारण विचार करा दिया गया समझ लो । तिस कारण कोई भी अचेतन पदार्थ प्रमाण नहीं है । यह सिद्धान्त भले प्रकार स्थित होगया है।
__ प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणमिति करणसाधनत्वविवक्षायां साधकतमं प्रमाणमित्यभिमतमेव अन्यथा तस्य करणत्वायोगात् । केवलमर्थपमितौ साधकतमत्वमेवाचेतनस्य कस्यचित्र संभावयाम इति भावेंद्रिय चेतनात्मकं साधकतमत्वात् प्रमाणमुपगच्छामः । न चैवमागमविरोधः प्रसज्यते, " लुब्ध्युपपौगौ भावेंद्रियं" इति वचनात् उपयोगस्यार्थग्रहणस्य प्रमाणत्वोपपत्तेः।
प्रमिति की जाय जिस करके वह प्रमाण है, इस प्रकार करणमें अनट् प्रत्यय कर साधा गया प्रमाण हम जैनोंको अभीष्ट है ही, करणमें साधेगयेपन की विवक्षा होनेपर वह प्रमितिक्रियाका प्रकृष्ट उपकारक है अन्यथा यानी प्रमितिका साधकतम न माननेपर उसको करणपना करना युक्त न होगा। हां, केवल यह विशेष है कि पदार्थोकी प्रमिति करनेमें किसी भी अचेतन पदार्थको साधकतमपना ही हमारी संभावनामें नहीं आरहा है । इस कारण प्रमाका साधकतमपना होनेके कारण चेतनस्वरूप भावइन्द्रियोंको हम प्रमाण स्वीकार करते हैं । इस प्रकार माननेपर हमें अपने आगमसे विरोध आनेका कोई प्रसंग नहीं प्राप्त होता है । क्योंके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुयी विशुद्धिरूप लब्धि और उससे उत्पन्न हुआ निराकार दर्शन और साकार ज्ञानस्वरूप उपयोग ये भाव इन्द्रियां हैं, ऐसा