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तवार्थचिन्तामणिः
टक्कर खाकर ऊपर चन्द्रमाके भीतरसे प्रकाशती है । या चन्द्रमाकी कांतिसे टकराकर उछलती हुई सूर्यकिरणें चमकती हैं । और समुद्रजलका स्पर्श हो जानेसे वे शीतल भी हो गयी हैं। तिस ही कारण नेत्रोंको आनन्द देनेका हेतु हो मयीं हैं । अर्थात्-वर्तमानके इंग्रेजी साइन्सका मत यह है कि सूर्यकिरणोंसे ही चन्द्रमा उद्योतित होता है । वैष्णव सम्प्रदायके पुराणोंमें यों लिखा है कि समुद्रका मथन करनेपर चौदह रत्नोंकी प्राप्ति हुयी। उनमें एक चन्द्रमा है। ऊपरले सूर्यकी किरणोंका समुद्रस्थित लम्बी, चौडी, चन्द्रकान्तमणिके साथ अनेक दिनोंतक प्रतिघात होते रहनेके कारण वे उद्योतवाली और शीतल होगई हैं । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारके आगम तो प्रमाण नहीं हैं। क्योंकि युक्तियों के अनुग्रहसे रहित हैं, जैसे कि तिस प्रकारके अन्य आगम विचारे प्रमाण नहीं माने गये हैं। अर्थात् वर्तमानके कतिपय वैज्ञानिकोंने कुछ तारे ऐसे माने हैं, फैलते फैलते भी जिनका प्रकाश असंख्य वर्षासे यहां पृथ्वीपर अबतक नहीं आ पाया है । ऐसा उनकी पुस्तकोंमें लिखा है । पृथ्वी आदिक तत्त्वोंको मिलाकर ही जीवात्मा बन जाता है। विचारनेवाले मनका स्थान शिर है, इत्यादिक आगम या पुस्तकें अयुक्त होनेके कारण जैसे प्रमाण नहीं हैं, उसी प्रकार चन्द्रकी गांठके उद्योतको सूर्यकिरणोंका उद्योत कहना और समुद्रजलके स्पर्शसे उनका ठंडा पड जाना कहना अयुक्त है। चन्द्रके लाञ्छनमें जैसे यह आगमप्रमाण नहीं है कि" अंक केपि शकिरे जलनिधेः पंच परे मेनिरे । सारंगं कविचिच्च संजगदिरे भूच्छायमैच्छन्परे । इन्दौ यदलितेन्दुनीलशकलश्यामं दरीदृश्यते । तन्नूनं निशि पीतमन्धसमसं कुक्षिस्थमाचक्ष्महे"। चन्द्रमामें खण्डित नीलमणिका टुकड़ा सरीखा काला पदार्थ जो अतिशययुक्त दीख रहा है, उस चिह्नको कोई तो कलंककी आशंकका करते हैं, अन्य विद्वान् समुद्र से चली आयी कीचड मान रहे हैं, कोई उसको हिरण कह रहे हैं, अन्य विद्वान् उसको पृथ्वीकी छाया इच्छते हैं, किन्तु कवि स्वयं यह सिद्धान्त करते हैं कि रातमें पान कर लिया गया गाढ अन्धकार चन्द्रकी कोखमें वही दीख रहा है । वस्तुतः चन्द्रविमान स्वयं छप्पनबटे एकसठ योजनका उधोतशाली, तथा मूल और प्रभामें शीतल, तथा अनादिकालीन, एवं काले, पीले, रत्नोंसे निर्मित, रत्नमय, पदार्थ है। उन युक्तियोंसे नहीं अनुगृहीत हो रहे, चाहे जिस किसी आगमको भी यदि प्रमाण मान लिया जायगा तो अतिप्रसंग हो जायगा । जगत्में हिंसा, झूठ, आखेट, वेश्यासेवन, द्यूतक्रीडा, आदिके प्रतिपादक भी शास्त्र कषायवान् जीवोंने गढ लिये हैं। मेदवादी, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि विद्वानोंके यहां भी ब्रह्माद्वैतके प्रतिपादक आगमको प्रमाणपनेका प्रसंग हो जायगा और ऐसा होनेपर उसके साथ सम्पूर्ण नैयायिक, वैशेषिक और योग्यविद्वानोंके मतका विरोध हो जायमा । किन्तु द्वैतवादी नैयायिकोंने अद्वैत प्रतिपादक आगमको अयुक्त होनेके कारण प्रमाण नहीं माना है। दूसरी बात यह भी है, सो बार्तिकद्वारा सुनिये।