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तत्त्वार्थ लोक वार्तिके
किमुष्णस्पर्शविज्ञानं तैजसेक्ष्णि न जायते । तस्यानुद्भूततायां तु रूपानुद्भूतता कुतः ॥ ४७ ॥
नैयायिक अथवा वैशेषिकों के प्रति आचार्य महाराज प्रश्न उठाते हैं कि चक्षुको तेजोद्रव्यसे निर्मित हुआ मानने पर आंख में क्यों नहीं उष्णस्पर्शका विज्ञान उत्पन्न हो जाता है ? अनि, दीपकलिका आदि सभी तैजस पदार्थोंमें उष्णस्पर्शका स्पार्शनप्रत्यक्ष उपज रहा है। यदि आप उस तेजस नेत्रके उष्ण स्पर्शका अनुद्भूतपना स्वीकार करेंगे तब तो तेजके मास्वररूपका अनुभूतपना भला कैसे हो सकता है ? ऐदम्पर्य यह है कि जिस तैजस पदार्थका उष्णस्पर्श अनुभूल ( अप्रकट ) है, उसका रूप अवश्य उद्भूत है। और जिसका रूप अनुद्भूत है, उसका स्पर्श अवश्य उद्भूत ( प्रकट ) है । फिर नेत्रमें कमसे कम उष्णस्पर्श या भास्वर ( अधिक चमकीला ) शुभ दोनोंमेंसे एक तो अभिव्यक्त होना ही चाहिये । नेत्रको तैजस माना जाय और दोनों भास्वर शुक्क और उष्ण स्पर्श अप्रकट माने जांय, यह कथन आप नैयायिकोंके अपने सिद्धान्तसे ही विरुद्ध पडता है। किसी भी तैजसपदार्थ में नैयायिकोंने रूप, स्पर्श, दोनोंको तिरोभूत नहीं माना है, रूप, स्पर्श दोनोंमेंसे एक अप्रकट भले ही हो जाय। फिर नेत्रमें अपने नियमका अतिक्रमण वे कैसे कर सकेंगे ? अर्थात् नहीं । नेत्रमें तेजोद्रव्यके उपजीवक भास्वररूप और उष्णस्पर्श दोनों नहीं प्रतीत होते हैं। अतः चक्षु तैजस नहीं है। पौगलिक तो है ही ।
तेजोद्रव्यं ह्यनुद्भूतस्पर्शमुद्भूतरूपभृत् ।
दृष्टं यथा प्रदीपस्य प्रभाभारः समंततः ॥ ४८ ॥ तथानुद्भूतरूपं तदुद्भूतस्पर्शमीक्षितम् । यथोष्णोदकसंयुक्तं परमुद्भूततद्वयम् ॥ ४९ ॥ नानुद्भूतद्वयं तेजो दृष्टं चक्षुर्यतस्तथा । अदृष्टवतस्तच्चेत्सर्वमक्षं तथा न किम् ॥ ५० ॥ सुवर्णघटवत्तत्स्यादित्यसिद्धं निदर्शनं । प्रमाणबलतस्तस्य तैजसत्वाप्रसिद्धितः ॥ ५१ ॥
जो तेजोद्रव्य अनुभूत स्पर्शवाला है, वह नियमसे उद्भूतरूपको धारण किये हुए देखा
गया है । जैसे कि प्रदीपका चारों ओरसे फैल रहा दीसियोंका समुदाय भले ही व्यक्त उष्णस्पर्शवाला