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'तत्वार्थचिन्तामणिः
यहाँ अन्धकार पदार्थ सिद्ध नहीं हो पायंगा। अर्थात्-जैनोंको अभीष्ट हो रहे सिद्धान्त अनुसार यदि अन्धकारको पौगलिक तत्व माना जायगा तो उन्हींके अभीष्ट अनुसार चक्षुका अतैजसपना भी सिद्ध हो जायगा । एक बात मानी जाय दूसरी न्याय्य बात नहीं मानी जाय ऐसा अर्द्धजरतीय न्याय प्रशस्य नहीं है।
अतेजसाजनापेक्षि चक्षु रूपं व्यनक्ति यं । नातः समानजातीयसहकारि नियम्यते ॥ ४६॥ वैशेषिकोंने यह कहा था कि तैजस अपनी समान जातिवाले अन्य तैजस पदार्थको सहकारी चाहती है । सो उनका यह कहना भी ठीक नहीं, जब कि रोगी, वृद्ध या मोतियाबिन्दवाले मनु. ष्योंकी चक्षुयें तेजोद्रव्यसे नहीं बनाये गये अतैजस अंजन या काजलकी अपेक्षा रखती हुयीं जिस रूपकी प्रकट अप्ति कराती हैं, उसमें चक्षुका सहकारी कारण कोई समानजातिका तैजस पदार्थ अपेक्षणीय नहीं है । तथा शिर या पादतलमें तैल, घृत, आदिक मलनेसे नेत्रोंको सहकारिता प्राप्त हो जाती है। काच या पत्थरके उपनेत्र ( चश्मा ) भी नेत्रोंके सहायक हैं। घी, बूरा, कालीमिर्च, बादामका भक्षण भी नेत्रद्वारा दर्शन करानेमें उपयोगी है । अतः समानजातीय तेजस पदार्थ ही नेत्रोंका सहकारी है, यह नियम नहीं किया जा सकता है। चश्मा आदिक तो वैशेषिकोंके यहां पार्थिव पदार्थ माने गये हैं।
तैजसमेवांजनादि रूपप्रकाशने नेत्रस्य सहकारि न पुनः पार्थिवमेव तत्रानुभूतस्य तेजीद्रव्यस्य भावादित्ययुक्तं प्रमाणाभावात् । तैजसमंजनादि रूपावभासने नयनसहकारिस्वादीपादिवत्यप्यसम्यक्, चन्द्रोद्योतादिनानैकांतात् । तस्यापि पक्षीकरणान्न व्यभिचार इति चेत्र, हेतो. कालात्ययापदिष्टत्वप्रसंगात् । पक्षस्य प्रत्यक्षानुमानागमवाधितत्वात् तस्य प्रत्यक्षेणातैजसत्वेनानुभवात् । न तैजसश्चंद्रोद्योतो नयानानंदहेतुत्वात्सलिलादिवदित्यनुमानात् । मूलोष्णवती प्रभा तेज इत्यागमाचाब्धिजलकल्लोलैश्चंद्रकांतातिहताः सूर्याशवः प्रयोतते शिशिराश्च भवंति तत एव नयनानंदहेतव इत्यागमस्तु न प्रमाणं, युक्त्यननुगृहीतत्वात् तथाविधागांतरवत् । तदननुगृहीतस्यापि प्रमाणत्वेतिप्रसंगात् । पुरुषाद्वैतप्रतिपादकागमस्य प्रमाणत्वमसंगात् सफलयोगमतविरोधात् । किं च।
वैशेषिक कहते हैं कि तेजोव्यसे बने हुये ही अंजन आदिक पदार्थस्वरूपको प्रकाशनेमें नेत्रके सहकारी कारण हैं । किन्तु फिर वे अंजन आदिक विवर्त केवल पार्थिव ही नहीं है । क्योंकि उन अंजन आदिकोंमें प्रकट नहीं हो रहे अप्रकट तेजोद्रव्यका भीतर सद्भाव है। अतः तैजस