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तत्वार्थलोकवार्तिके
___ आचार्य कहते हैं कि वह वैशेषिकोंका कहना प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि प्रदीपके समान अन्य दीपक, सूर्य, आदिकी नहीं अपेक्षा रखनेवाले मनुष्योंके नेत्रोंको किसी भी प्रकारसे अर्थप्रकाशकपनेका विशेष निश्चय नहीं है। यानी मनुष्योंको चाक्षुष प्रत्यक्ष करनेमें अन्य आलोककी अपेक्षा आवश्यक है । मन्दसे मी अतिमन्द हो रहे प्रदीपको स्वप्रकाशनमें अन्य दीपोंकी आवश्यकता नहीं है । भले ही किसी सूक्ष्म या लम्बे, चौडे, पदार्थोके प्रकाशने अन्य दीपकोंकी आवश्यकता होय, जब कि मन्ददीपके समान भी नेत्रोंमें तैजसकान्ति या किरणें नहीं दीखती हैं, तो नेत्रोंको तैजस कैसे भी नहीं कहा जा सकता है । यो सूक्ष्मतासे विचारनेपर तो मन्दप्रकाश इन सांप, चूरेके बिलोंमें भी है । आतपयुक्त आंगन, गृह, तलघर, खत्ती, गुप्तगृह, मूषकबिल, सर्पविलमें प्रकाश न्यूनतर न्यूनतम है । चूना, मिट्टी आदि पदार्थोंमें भी थोडी प्रमा होती है । तथा प्रकाशकोंकी प्रभा भी बहुत भीतर घुस जाती है।
अंधकारावभासोस्ति विनालोकेन चेन्न वै । प्रसिद्धस्तेंधकारोस्ति ज्ञानाभावात्परोर्थकृत् ॥ ४४ ॥
यदि वैशेषिक यों कहें कि रात्रिमें आलोकके विना मी अन्धकारका प्रतिमास हो जाता है। फिर आप जैन नेत्रोंको चाक्षुषप्रत्यक्ष करनेमें आलोककी आवश्यकताका इतना आग्रह क्यों कर रहे हैं ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो वैशेषिकोंको नहीं कहना चाहिये । क्योंकि तुम वैशेषिकोंके यहां ज्ञानाभावसे अतिरिक्त कोई न्यारा अर्थक्रियाको कहनेवाला अन्धकार पदार्थ निश्चयसे प्रसिद्ध नहीं माना गया है। फिर आलोक अन्धकारके विना ही दीख जानेका हमारे ऊपर व्यर्थ आपादन क्यों किया जाता है ।।
परेष्ट्यास्तीति चेत्तस्याः सिद्धं चक्षुरतेजसं ।
प्रमाणत्वेन्यथा नांधकारः सिध्द्येत्ततस्तव ॥ ४५ ॥
यदि वैशेषिक यों कहें कि जैनोंने अंधकारको पुद्गलद्रव्यका पर्याय इष्ट किया है। यों दूसरे जैनोंकी इष्टिसे अन्धकार पदार्थका अस्तित्व मान लिया जाता है । अतः जैनसिद्धान्त अनुसार जनोंके ऊपर अन्धकारके आलोक विना ही प्रत्यक्ष हो जानेका कटाक्ष किया जा सकता है । प्रतिवादीको जैसा भी अवसर मिलेगा तदनुसार वादीको चित्त या पट्ट, गिरानेकी घातमें लगा रहेगा। इस प्रकार कौटिश्यसहित वैशेषिकोंकी नीति हो जानेपर तो हम स्याद्वादी भी सतर्क होकर कहते हैं कि यदि दूसरे जैनोंकी इष्टिसे ही कार्य साधा जाता है, तो स्याद्वादियोंकी उस इष्टिको प्रमाणपना माननेपर चक्षु अतैजस भी सिद्ध हो जाती है । जैनोंने चक्षुको अतैजस माना है। अन्यथा यानी जैन आचार्योंके इष्ट सिद्धान्तको प्रमाणपना नहीं माननेपर तो तिस कारण तुम्हारे